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प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ
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हैं, जो केवल व्यवसायी न हो, जो लेखको के मित्र हो, सहचर हो, पथ-प्रदर्शक हो और सच्चे सहायक हो । प्रेमी जी में यही सब वाते है । प्रेमीजी ने स्वय जो साहित्य की सेवा की है उसका मूल्य तो विज्ञ ही निर्दिष्ट करेंगे, पर अपने प्रकाशन-कार्य के द्वारा उन्होने साहित्य के क्षेत्र को जितना विस्तृत किया है, लेखको को प्रोत्साहित कर उनकी ठीक योग्यता के अनुसार उनके लिए साहित्य सेवा में जितनी अधिक सुविधाएँ कर दी है और जितना अधिक भार्ग - पदर्शन कर दिया है, पाठको की जितनी अधिक रुचि परिष्कृत कर दी है और उनमें जितना अधिक सत्- साहित्य की ओर अनुराग उत्पन्न कर दिया है, वह मेरे जैसे पाठको और लेखको के लिए विशेष अभिनन्दनीय है। इसी दृष्टि से श्राज में यहाँ इन्ही के जीवन को लक्ष्य कर सेतीस साल की साहित्य गति पर विचार करना चाहता हूँ ।
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गाधुनिक हिन्दी साहित्य का अभी निर्माण हो रहा है । भारतेन्दु जी से लेकर आज तक हिन्दी माहित्य hraft किसी भी प्रकार का अवरोध नही हुआ है । क्रमश उन्नति ही होती जा रही है। आधुनिक हिन्दी साहित्य के निर्माताओ मे कितने ही विज्ञो के नाम लिये जा सकते है । उन सभी की सेवाएँ स्तुत्य है । तो भी यदि हम प्राधुनिक साहित्य की तुलना हिन्दी के प्राचीन साहित्य से करे तो हमे यह स्पष्ट प्रकट हो जाता है कि प्राचीन माहित्य में जो स्थायी ग्रन्थ-रत्न है उनके समान ग्रन्थो की रचना आधुनिक हिन्दी साहित्य मे अभी अधिक नही हुई है । आधुनिक लेखको में जिनकी रचनाएँ अधिक लोक प्रिय है उनकी महत्ता को स्वीकार कर लेने पर भी यह दृढतापूर्वक नही कहा जा सकता कि उनकी रचनाओ में कितना स्थायित्व है । साहित्य के प्रारम्भिक काल में नवीनता की ओर श्रधिक आग्रह होने के कारण अधिकाश लोग किसी की भी नवीन कृति के सम्बन्ध में उच्च धारणा बना लेते है । पर जव वही नवीन रचना कुछ समय के बाद अपनी नवीनता खो बैठती है तब उसके प्रति लोगो में आप से- श्राप विरक्ति का-सा भाव श्रा जाता है । काव्य के क्षेत्र में पडित श्रीधर पाठक, पडित नाथ्राम शकर शर्मा, पडित रामचरित उपाध्याय, सनेहीजी, श्रादि कवियों की रचनाएँ कुछ ही समय पहले पाठको के लिए केवल आदरणीय ही नही, स्पृहणीय भी थी, परन्तु श्रव यह निस्सकोच कहा जा सकता है कि आधुनिक हिन्दी काव्य के विकास में उनका एक विशेष स्थान होने के कारण वे श्रव आदरणीय ही है । आजकल मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, सियारामशरण गुप्त, निराला, पन्त, रामकुमार वर्मा, महादेवी वर्मा, वच्चन, दिनकर श्रादि कवियो की रचनाएं स्पृहणीय अवश्य है, पर नवीन काव्य-धारा के प्रवाह में उनकी रचनाओ का गौरव कबतक बना रहेगा, यह निश्चय-पूर्वक नही कहा जा सकता । कवि-सम्मेलनो में नये कवियो की रचनाओ की र नवयुवको का जो आग्रह प्रकट होता है वह श्राग्रह उक्त लब्ध प्रतिष्ठ कवियो की रचनाओ के प्रति नही देखा जाता । कुछ विज्ञ यह भी अनुभव करने लगे है कि अब हिन्दी में उत्तम एव साधना सम्पन्न साहित्य-सृजन तथा निष्पक्ष और निर्भीक समालोचना की बडी अवहेलना होती है । इस कथन में चाहे जितना सत्य हो, इसमें सन्देह नही कि हिन्दी
अभी परिष्कृत लोक रुचि का निर्माण नही हुआ । यही कारण है कि लोग अभी उच्च कोटि के साहित्य की ओर श्रनुरक्त नही होते । साहित्य के क्षेत्र में जबतक उच्च श्रादर्श को लेकर ग्रन्थो का प्रकाशन नही होगा तवतक सर्वसाधारण की रुचि परिष्कृत नही होगी ।
जिस लोक-शिक्षा के भाव से हिन्दी में द्विवेदी जी ने 'सरस्वती' का सम्पादन किया था उसी लोक शिक्षा के भाव से प्रेरित होकर प्रेमीजी ने 'हिन्दी- प्रन्थ-रत्नाकर' का प्रकाशन किया था । साहित्य के क्षेत्र मे जो परिवर्तन 'सरस्वती' के द्वारा हुआ है, वही 'हिन्दी - अन्य - रत्नाकर' के द्वारा भी हुआ है । 'हिन्दी-ग्रन्थ - रत्नाकर' के ग्रन्थो का सर्व साधारण पर कितना प्रभाव पडा है, यह उसकी लोकप्रियता से ही प्रकट हो जाता है। उस समय में छात्र था । 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर-कार्यालय' द्वारा सवसे पहले द्विवेदी जी की 'स्वाधीनता' का प्रकाशन हुआ । उसके बाद 'प्रतिभा' और फिर 'फूलो का गुच्छा' निकला। कितने ही लोग 'हिन्दी-ग्रन्थ - रत्नाकर' के स्थायी ग्राहक हो गये । १९१२ से लेकर १९१६ तक मेरे घर में भी 'हिन्दी-ग्रन्थ - रत्नाकर' के सभी ग्रन्थ आते रहे । १९१६ में मेरे