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जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन
३२१ राजशेखर जैनदर्शन के अन्य लिख कर ही सन्तुष्ट नही हुए। उन्होने प्रशस्तपादभाष्य की टीका कदली के पर भी पजिका लिख कर हरिभद्र और अभयतिलक के मार्ग का अनुसरण किया।
१५वी शताब्दी में साधुविजय ने वादविजयप्रकरण और हेतुखडन ये दो ग्रन्थ लिखे।
इस प्रकार अकलक के द्वारा प्रमाणशास्त्र की प्रतिष्ठा होने पर इस क्षेत्र में जो जैनदार्शनिको की सतत साधना रही है इसका दिग्दर्शन पूर्ण होता है। और साथ ही नये युग का प्रारम्भ होता है।
भट्टारक धर्मभूषण ने 'न्यायदीपिका' इसी युग में लिखी है।
(४) नवीनन्याय युग
वि० तेरहवी सदी में गगेश नामक प्रतिभासम्पन्न तार्किक महान् नैयायिक हुए । न्यायशास्त्र में नवीन न्याय का युग इन्ही मे प्रारम्भ होता है। इन्होने नवीन परिभाषा मे नूतनशैली मे तत्वचिन्तामणि नामक ग्रन्य की रचना की। इसका मुख्य विषय प्रत्यक्षादि नैयायिक प्रसिद्ध चार प्रमाण है। चिन्तामणि के टोकाकारो ने इस नवीनन्याय के अन्य का उत्तरोत्तर इतना महत्त्व वढाया कि न्यायशास्त्र अव प्राचीन और नवीन इन दो विभागो मे विभक्त हो गया। इतना ही नहीं अन्य वेदान्ती, वैशेषिक, मीमासक आदि दार्शनिको ने भी अपने-अपने दर्शन को इस नवीन शैली का उपयोग करके परिष्कृत किया। स्थिति ने इतना पलटा खाया कि इस नवीन न्याय की शैली मे प्रवीण हुए बिना कोई भी दार्शनिक मभी दर्शनो के इस विकाम का पारगामी हो नही मकता। इतना होते हुए भी जैन दार्शनिको मेसे किमी का ध्यान इस ओर वि० सत्रहवी शताब्दी के अन्त तक गया नहीं। वादी देवसूरि की मृत्यु के ३१ वर्ष वाद गगेम का जन्म वि० १२५७ मे हुआ और उन्होने शैली का परिवर्तन किया। किन्तु जैन दार्शनिको ने गगेश के बाद भी जो कुछ वादी देव सूरि ने किया था उसी के गीत गाये। फल यही हुआ कि जनदर्शन इन पांच शताब्दियो मे होने वाले दार्शनिक विकास से वचित ही रहा । इन पांच शताब्दियो मे इस नवीन प्रकाश मे अन्य दार्शनिको ने तो अपने दर्शन का परिष्कार कर दिया किन्तु जैनदर्शन इस नवीन शैली को न अपनाने के कारण अपरिष्कृत ही रह गया।
यशोविजय
सत्रहवी शताब्दी के अन्त के साथ ही जनसघ की इस घोर निद्रा का भी अन्त हुआ। स. १६६६ में अहमदावाद के सघ ने प० यशोविजय मे उस प्रतिभा का दर्शन किया जिस से जैनदर्शन की इस क्षति की पूर्ति होना सम्भव था। शेठ धनजी सुराकी विनति मे प० यशोविजय को लेकर उनके गुरु आचार्य नयविजय ने विद्यावाम काशी की ओर विहार किया। वहाँ यशोविजयजी ने सभी दर्शनो का तया अन्य शास्त्रो का पाण्डित्य प्राप्त करके न्यायविशारद की पदवी प्राप्त की। और उन्होने अकेले ही जैनदर्शन की उक्त क्षति की पूर्ति की।
अनेकान्तव्यवस्था नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ नवीन न्यायशैली में लिखकर जैनदर्शन के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त अनेकान्तवाद का परिष्कार किया। इसी प्रकार जैनतर्कभाषा और ज्ञानविन्दु लिख कर जैनदर्शन की ज्ञानविषयक और प्रमाणविषयक परिभाषा को परिष्कृत किया। नयप्रदीप, नयरहस्य और नयामृततरगिणी नामक स्वोपज्ञ टोका के साथ नयोपदेश लिख कर नयवाद का परिष्कार किया। न्यायखडखाद्य और न्यायालोक में नवीनशैली मे ही नैयायिकादि दार्शनिको के मिद्धान्तो का खडन किया। इसके अलावा अनेकान्तवाद का उत्कृष्ट प्राचीन ग्रन्थ अष्टसहस्री का विवरण लिख कर तथा हरिभद्रकृत शास्त्रवासिमुच्चय की टीका स्याद्वादकल्पलता लिख कर इन दोनो ग्रन्यो को अद्यतन रूप दे दिया। भाषारहस्य, प्रमाणरहस्य, वादरहस्य आदि रहस्यान्त अनेक ग्रन्य नवीन न्याय की परिभापा मे लिख कर जैनदर्शन मे नये प्राण का सचार कर दिया।