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प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ ३९८ के द्वारा ही करन का बन्धन नहीं है, नव वह श्रोताओं के मन के ऊपर चमत्कारिक प्रभाव पैदा करके उसे परमात्मा की लोकोत्तर चमत्कारिता में श्रद्धालु वना करके कविकृत्य सिद्ध करता है।
शब्दातीत कथ्यते वावदूकै नातीतो ज्ञायते ज्ञानवद्भि'।
बन्धातीतो वध्यते क्लेशपाशैर्मोक्षातीतो मुच्यते निर्विकल्प ॥९॥ अथ शब्द से प्रतीत होने पर भी वह वादियो के वाद का विषय बनता है, ज्ञान से प्रतीत होने पर भी वह ज्ञानियों के ज्ञान का विषय बनता है । बधन से प्रतीत होने पर भी क्लेश पाश से वधता है और मोक्षातीत होने पर भी निर्वकल्प होकर मुक्त होता है।
भावार्थ-तैत्तिरीय आदि उपनिषदो मे “यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ।" (० २-६) जैसे वर्णन है उनमे आत्मा का शब्दातीतत्व और मनोऽगम्यत्व रूप से प्रतिपादन किया गया है। दूसरी ओर ये ही उपनिषद् पुन आत्मा का निरूपण करते है और ज्ञानियो को आत्मज्ञान के लिए प्रोत्साहित करते है। जैसे कि 'श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य' (बृ० २ ४ ५) इत्यादि । आत्मब्रह्म को कूटस्थ मानकर बवमोक्ष से अतीत कहा गया है और 'सोऽकामयत बहु स्या प्रजायेयेति ।' (० २ ६) तया 'तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् ।' (तै० २ ६) इत्यादि द्वारा आत्मब्रह्म को सृष्टिवद्ध भी कहा है। उपनिपदो और दूसरे सभी अध्यात्मशास्त्रो का कथन यही है कि निर्विकल्पसमाधि प्राप्त करने वाला आत्मा मुक्त होता है । ऐसे परस्पर विरुद्ध दिखाई देने वाले उपदेशवाक्यो का अवलम्वन लेकर के कवि ने आत्मा की पारस्परिक विरुद्ध अवस्थाओ का आलकारिक भाषा मे वर्णन किया है, परन्तु उसका तात्पर्य तो यह है कि ये विविध वर्णन परस्पर असगत नही है किंतु दृष्टिभेद से प्रवृत्त हुए है। इसी वस्तु को जैन परिभाषा मे कहना हो तो इस प्रकार कह सकते है कि पारमार्थिक-कर्मनिरपेक्ष स्वाभाविक-दृष्टि से प्रात्मा न तो वाच्य है, न तय है, न वद्ध है और न मुक्त है परन्तु व्यावहारिक और कर्मसापेक्ष वैभाविक दृष्टि से आत्मा शब्दगम्य, ज्ञानध्यानगम्य, बद्ध और मुक्त भी है।
प्राचीन जैनश्रुत मे अति महत्त्व रखने वाले प्राचाराग सूत्र में आत्मा की स्वाभाविक स्थिति का जो वर्णन है वह उपनिषदो में वर्णित निर्गुणब्रह्म की याद दिलाता है। वह कहता है कि-"सव्वे सरा नियट्टन्ति, तक्का तत्थ न विज्जइ, मई तत्य न गहिया, मे न दोहे, न हस्से, न कोण्हे, न नीले न लोहिए, न सुरभिगन्धे न दुरभिगन्धे, न तित्ते, न कडए, न गरुए न लहए, न इत्थी न पुरिसे न अन्नहा परिन्ने सन्ने उवमा न विज्जए।" (५ ६ १७०) ।
नाय ब्रह्मा न कपर्दी न विष्णुर्ब्रह्मा चाय शकरश्चाच्युतश्च ।
अस्मिन मढा प्रतिमा कल्पयन्ते ज्ञातश्चाय न च भुयो नमोऽस्ति ॥१०॥ अय-यह परमात्मा न ब्रह्मा है, न शकर है, और न विष्णु है, और फिर भी यह ब्रह्मा, शकर और विष्णु भो है। मूढ़ मनुष्य ही परमात्मा के विषय में विविध प्रकार की प्रतिमानो की कल्पना करते है, जब यह प्रात्मा ज्ञात हो जाता है तब फिर नमस्कार करना शेष नहीं रहता है।
___ भावार्थ-लोक परम्परा और पौराणिक मान्यताप्रो मे ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर की त्रिमूर्ति पूजी तथा मानी जाती है और उपासक अपनी रुचि या सस्कार के अनुसार परमात्मा को ही ब्रह्मा, शकर या विष्णु रूप से भजता है । लोक और बहुत बार शास्त्र भी इस त्रिमूर्ति को परस्पर विरुद्ध मानते है तया मनवाते है। इस वस्तुस्थिति को ध्यान मे लेकर के कवि परमात्मा का ययार्य-निर्गुण- वर्णन करने के लिए और लोक तथा शास्त्र में रूट विरोधी भावना को निर्मल करके उसके स्थान पर समन्वयदृष्टि से सगुण वर्णन करते समय कहता है कि परमात्मा न तो ब्रह्मा है, न शकर है और न विष्णु है फिर भी वह तीनो रूप है--कोई एक रूप तो नहीं है।
'ज्ञानविद्धि-मु०। कल्पयन्तो-मु० ।