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जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन
३१३ मल्लवादी और सिंहगणी सिद्धसेन के समकालीन विद्वान् मल्लवादी हुए है। वे वादप्रवीण थे अतएव उनका नाम मल्लवादी था। उन्होने सन्मतितर्क की टीका की है। तदुपरान्त नयचक्र नामक एक अद्भुत अन्य की रचना की। ये श्वेताम्बराचार्य थे। किन्तु अकलकादि दिगम्वर आचार्यों ने भी इनके नयचक्र का बहुमान किया है।
तत्कालीन मभी दार्शनिकवादो को सात नयो के अन्तर्गत वता करके उन्होने एक वादचक्र की रचना की है । उस चक्र में उत्तर उत्तर वाद पूर्व पूर्व वाद का विरोध करके अपने-अपने पक्ष को सवल सिद्ध करता है।
ग्रन्थकार का तो उद्देश्य यह है कि ये सभी एकान्तवाद अपने आपको पूर्ववाद से प्रवल समझते हैं किन्नु अपने वाद से दूसरे उत्तरवाद के अस्तित्व का खयाल वे नहीं रखते। एक तटस्य व्यक्ति ही इस चक्रान्तर्गत प्रत्येक वाद की आपेक्षिक मवलता या निर्बलता जान सकता है। और वह तभी जव उसे पूरा चक्र मालूम हो। इन वादो को पक्तिवद्ध न करके चक्रबद्ध करने का उद्देश्य यह है कि पक्ति मे तो किसी एक वाद को प्रथम स्यान देना पड़ता है और किसी एक को अन्तिम । उत्तरोत्तर खडन करने पर अन्तिम वाद को विजयी घोपित करना प्राप्त हो जाता है। किन्तु यदि इन वादो को चक्रवद्ध किया जाय तो वादो का अन्त भी नहीं और आदि भी नहीं। सुभीते के लिए किसी एक वाद की स्थापना प्रयम की जा सकती है और अन्त में किमी एक पक्ष को रक्खा जा सकता है, किन्तु चक्रवद्ध होने से उस अन्तिम के भी उत्तर मे प्रथमवाद ही ठहरता है और वही उस अन्तिम का खडन करता है और इस प्रकार एकान्तवादियो का खडन-मडन का चक्र चलता है। अनेकान्तवाद ही इन सभी वादो का समन्वय कर सकता है। आचार्य ने इन सभी को चबद्ध करके यही सूचित किया है कि अपनी-अपनी दृष्टि मे वे सभी वाद सच्चे हैं, किन्तु दूसरो की दृष्टि में मिथ्या ठहरते है । अतएव नयवाद का उपयोग करके इन सभी वादो का समन्वय करना चाहिए। और उनकी सच्चाई यदि है तो किस नय की दृष्टि से है उसे विचारना चाहिए। मल्लवादि ने प्रत्येक वाद को किसी न किसी नयान्तर्गत करके सभी वादो के स्रोत को अनेकान्तवाद त्पी महासमुद्र में मिलाया है, जहाँ जाकर उनका पृथगस्तित्व मिट जाता है और सभी वादो के समन्वयरूप एक महाममुद्र ही दिखाई देता है। नयचक्र की एक और भी विशेषता है और वह यह कि उसमे इतर दर्शनो मे भी किस प्रकार अनेकान्तवाद को अपनाया गया है उसे दिखाया है।
इस नयचक्र के ऊपर सिंह क्षमाश्रमण ने १८००० श्लोक प्रमाण वृहत्काय टीका की है। उनका समय सातवी शताब्दी से उत्तर में हो नहीं सकता क्योकि उन्होने दिग्नाग और भर्तृहरि के तो कई उद्धरण दिये है किन्तु धर्मकीर्ति के ग्रन्थ का कोई उद्धरण नहीं। और न कुमारिल का ही उसमे कही नाम है। आश्चर्य है कि उसमें समन्तभद्र का भी कोई उद्धरण नही, किन्तु सिद्धमेन और उनके ग्रन्यो का उद्धरण वार-बार है। नयचक्रटीका गायकवाड़ मिरीज़ में छप रही है।
पात्रकेसरी
इमी युग में एक और तेजस्वी दिगम्बर विद्वान् पात्रस्वामी, जिनका दूसरा नाम पात्रकेसरी था, हुए। इन्होने 'त्रिलक्षण कदर्थन' नामक एक ग्रन्थ लिखा है। इस युग में प्रमाणशास्त्र से मीषा सम्बन्ध रखने वाली दो कृतियाँ हुई एक सिद्धसेनकृत न्यायावतार और दूसरी यह त्रिलक्षणकदर्थन । इसमें दिग्नाग समर्थित हेतु के विलक्षण का खड्न किया गया है और जनदृष्टि से अन्ययानुपपत्ति रूप एक ही हेतुलमण सिद्ध किया गया है । जैन न्यायशास्त्र मे हेतु का यही लक्षण न्यायावतार में और अन्यत्र मान्य है। यह ग्रन्य उपलब्ध नहीं है।
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