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________________ ३१२ प्रेमी-अभिनंदन-प्रय महत्ता की कसौटी नहीं, क्योकि देवलोक के निवासियो में भी शारीरिक महोदय होते हुए भी वे महान् नही, क्योकि उनमें रागादि दोष है । तव प्रश्न हुआ कि क्या जो तीर्थकर या धर्मप्रवर्तक कहे जाते है जैसे बुद्ध, कपिल, गौतम, कणाद, जैमिनी आदि-उन्हें महान् और प्राप्त माना जाय ? इसका उत्तर उन्होने दिया है कि ये तीर्थंकर कहे तो जाते है किन्तु सिद्धान्त परस्पर विरुद्ध होने से वे सभी तो प्राप्त हो नहीं सकते। किसी एक को ही प्राप्त मानना होगा। वह एक कोन है, जिसे प्राप्त माना जाय? इसके उत्तर में उन्होने कहा है कि जिसके मोहादि दोषो का अभाव हो गया है और जो सर्वज्ञ हो गया है वही प्राप्त हो सकता है। ऐसा निर्दोष और सर्वज्ञ व्यक्ति आप अर्थात भगवान् वर्धमान आदि अर्हन्त ही है, क्योकि आपका उपदेश प्रमाण से अवाधित है। दूसरे कपिलादि आप्त नही हो सकते क्योकि उनका जो उपदेश है, वह ऐकान्तिक होने से ही प्रत्यक्ष वाधित है। प्राप्त की मीमासा के लिए ऐसी पूर्वभूमिका वाँध करके आचार्य समन्तभद्र ने क्रमश सभी प्रकार के ऐकान्तिक वादो में प्रमाणवाधा दिखा कर समन्वयवाद, अनेकान्तवाद जो कि भगवान् महावीर के द्वारा उपदिष्ट है उसी को प्रमाण से अवाधित सिद्ध करने का सफल प्रयत्ल किया है। सिद्धसेन के समान समन्तभद्र का भी यही कहना है कि एकान्तवाद का आश्रयण करने पर कुशलाकुशल कर्म की व्यवस्था और परलोक ये बाते असगत हो जाती है। समन्तभद्र ने प्राप्तमीमासा में दो विरोधी एकान्तवादो में क्रमश दोपो को दिखा कर यह बताने का सफल प्रयत्न किया है कि इन्ही दो विरोवी एकान्तवादो का समन्वय यदि स्याद्वाद के रूप में किया जाता है, अर्थात् इन्ही दो विरोधी वादो को मूल में रख कर सप्तभगी की योजना की जाती है तो ये विरोधीवाद भी अविरुद्ध हो जाते है, निर्दोष हो जाते है। भगवान् के प्रवचन की यही विशेषता है। सर्वप्रथम ऐसा समन्वय उन्होने भावकान्त और अभावकान्तवाद को लेकर किया है। अर्थात् सत् और असत् को लेकर सप्तभगी का समर्थन करके उन्होने सिद्ध किया है कि ये सदद्वैत और शून्यवाद तभी तक विरोधी है जव तक वे अलग-अलग है किन्तु जब वे अनेकान्तरूपी मुक्ताहार के एक अगरूप हो जाते है तव उनमें कोई विरोध नही। इसी प्रकार द्वैतवाद और अद्वैतवाद आदि का भी समन्वय कर लेने की सूचना उन्होने की है। सिद्धसेन ने नयो का सुन्दर विश्लेषण किया तो समन्तभद्र ने उन्ही नयो के आधार पर प्रत्येक वादो मे स्याद्वाद की सगति कैसे बिठाना चाहिये इसे विस्तार से युक्तिपूर्वक सिद्ध किया है। प्रत्येक दो विरोवी वादो को लेकर सप्तभगो की योजना किस प्रकार करना चाहिए इसके स्पष्टीकरण मे ही समन्तभद्र की विशेपता है। उक्त वादो के अलावा नित्यकान्त और अनित्यकान्त, कार्य कारण का भेदैकान्त और अभेदैकान्त, गुण-गुणी का भेदैकान्त और अभेदकान्त, सामान्य सामान्यवत् का भेदैकान्त और अभेदैकान्त, सापेक्षवाद और निरपेक्षवाद, हेतुवाद और अहेतुवाद, विज्ञप्तिमात्रवाद और वहिरगार्थतैकान्तवाद, दैववाद और पुरुषार्थवाद, पर को सुख देने से पुण्य हो, दुख देने से पाप हो-ऐसा एकान्तवाद और स्व को दुख देने से पुण्य हो, सुख देने से पाप हो ऐसा एकान्तवाद, अजान से वन्ध हो ऐसा एकान्त और स्तोकज्ञान से मोक्ष ऐसा एकान्त, वाक्यार्थ के विषय मे विधिवाद और निपेधवाद-इन सभी वादो में युक्ति के वल से सक्षेप में दोप दिखा कर अनेकान्तवाद की निर्दोषता सिद्ध की है, प्रसग से प्रमाण, सुनय और दुर्नय, स्याद्वाद इत्यादि अनेक विपयो का लक्षण करके उत्तर काल के प्राचार्यों के लिए विस्तृत चर्चा का वीजवपन किया है। 1 "तीर्यकृत्समयाना च परस्पर विरोधत । सर्वेषामाप्तता नास्ति कश्चिदेव भवेद् गुरु ॥" • “स त्वमेयासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्ट ते प्रसिद्धन न वाध्यते ॥"
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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