SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ''हदी-ग्रंथ-रत्नाकर' और उसके मालिक १५ से बचे रहे। उन्होने कभी किसी ऐसी पुस्तक को नही छापा, जिमका उद्देश्य केवल पैसा कमाना हो और न लोभ मे पड कर कभी कोई ऐसा कार्य किया, जो नीति की दृष्टि से गिरा हुआ हो । कभी ऐसा मौका आता है तो वे कह देते है, "ज़रूरत पडने पर फिर मै एक वार छ रुपये महीने मे गुज़ारा कर लूँगा, पर कमाई के लिए यह पुस्तक न छापूँगा ।" यहाँ मुझे यह भी कहना चाहिए कि अल्पसन्तापिता से एक बुराई भी पैदा हो गई हैं । वह यह कि अन्य पुस्तकप्रकाशक अपनी पुस्तक बेचने के लिए जितनी कोशिश कर पाते है और कभी-कभी जितनी ज्यादा वेच लेते है उतनी हम नही कर पाते । विक्री की दौड में 'हिन्दी-ग्रन्थ - रत्नाकर' मदा पीछे ही रहा है, पर इनमें बहुत से प्रति प्रयत्नशील प्रकाशक चार दिन चमक कर ग्रस्त हो गये, पर 'हिन्दी-ग्रन्थ - रत्नाकर' अपनी कछुए की चाल से चला ही जा रहा है । करीब दो साल दादा मास्टरी करते रहे। इसी जमाने में देवरी मे वर्गीय अमीर अली 'मीर' के ससर्ग से दादा को कविता करने का शौक हुआ और उन्होने 'प्रेमी' के उपनाम से बहुत मी कविताएँ लिखी, जो उम जमाने मे समस्यापूर्ति के 'रमिक मित्र', 'काव्य -सुधाकर' आदि पत्रो मे छपा करती थी । पढने का भी शौक हुया और श्रासपाम मे जो भी पुस्तकें हिन्दी की मिलती थी, सभी पढी । कोई दो साल मास्टरी की नौकरी करने के बाद सरकार ने उन्हें नागपुर कृपि-कालेज में पढने भेज दिया । उन दिनों उस कालेज में हिन्दी में पढाने का प्रवन्ध किया गया था । पर नागपुर में वे अधिक दिन स्वस्थ न रह मके वीमार पड गये और घर लौट जाना पडा । अपने विद्यार्थी जीवन की सबसे अधिक स्मरणीय वात वे उस स्वावलम्वन की शिक्षा को समझते हैं, जो उस समय उन्हें मिली । उम ज़माने में कालेजो के साथ ग्राजकल की तरह वोडिंग नही थे । सव विद्यार्थियो को अपने हाथ से ही रोटी बनानी पडती थी । दादा को रोटी बनाने में आधा घटा लगता था । दादा वोडिंगो की प्रथा को बहुत बुरी प्रथा समझते हैं, जिससे उनमें विलामिता घर कर जाती है । । 'मीर' साहव के मसर्ग में जो उन्हें काव्य-साहित्य का शौक हुआ मो हमेशा ही बना रहा। साथ ही ज्ञान की पिपामा जाग्रत हो गई । खुद सुन्दर कविता करने लगे, पर इससे अधिक अपने अन्य कवियो की कविताओ का उत्तम मशोधन करने का बहुत अच्छा अभ्यास हो गया । ग्रागे चलकर इस ग्रभ्यास की ऐसी वृद्धि हुई कि कई अच्छे कवि अपनी कविता का मशोधन कराने में प्रसन्नता का अनुभव करते थे । दादा का कहना है कि उनको कविता प्रयत्नपूर्वक वनानी पडती है । वे स्वभावत कवि नही है । इसलिए उन्होने बाद मे कविता लिखना वन्द कर दिया। वे 'प्रेमी' उपनाम से कविता करते थे और इसी नाम से वे प्रसिद्ध हो गये । पर कविता के सशोधन और दोष-दर्शन में जितनी कुलता उन्हें हासिल है, उतनी कुछ इने-गिने लोगो को होगी । कही कोई शब्द वदलना हो, कही कोई काफिया ठीक न बैठता हो तो वे तुरन्त नया शब्द सुझा देते है और काफिये को ठीक कर देते हैं । ( इमी ममय एक अखवार में विज्ञापन निकला कि 'वम्बई - प्रान्तिक-दिगम्बर जैन सभा' को एक क्लार्क की जरूरत है । दादा ने अपना आवेदन-पत्र इस जगह के लिए भेज दिया । उनका आवेदन मजूर हुआ और बम्बई आने के लिए सूचना आ गई । पर आप जानते हैं कि उनका आवेदन मजूर होने का मुख्य कारण क्या था ? आवेदन-पत्र तो वहुतो ने भेजे थे, पर उनका श्रावेदन मजूर होने का मुख्य कारण उनकी हस्तलिपि की सुन्दरता थी । श्राजकल लोग हम्त लेख को सुन्दर बनाने पर बहुत कम ध्यान देते है । दादा के मोती मरीखे जमे हुए अक्षर ग्राज भी वहुतो का मन हरण कर लेते है । 'दादा के अक्षर सुन्दर न होते तो उनका वम्बई ग्राना न होता और न 'हिन्दी-ग्रन्थ - रत्नाकर' का उनके हाथो जन्म ही होता । वचपन मे उन्होने अपनी हस्तलिपि को सुन्दरता के लिए काफी प्रयत्न किया था श्रीर कस्वे के सरकारी स्कूल के सारे तख्ते उन्हीं के हाथ के लिखे थे । श्रकसर देखा जाता है कि जिन लडको के अक्षर अच्छे होते है, वे पढने में पिछड़े होते हैं, पर दादा अपनी कक्षा में हमेशा पहले दो लडको में रहे । वैम्बई में ग्राकर उन्हें अपनी शक्तियो के विकास का भरपूर अवसर मिला । यहाँ आते ही उन्होने सम्कृत, बँगला, मराठी और गुजराती सीखना शुरु कर दिया । छ -मात घटे आफिस का काम करके बचत के समय में वे इन भाषाओं का अभ्यास करते थे । दफ्तर में एकमेवाद्वितीय थे । चिट्ठी-पत्री लिखना, रोकड मम्हालना और 'जैनमित्र'
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy