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पाणिनि के समय का सस्कृत साहित्य
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सम्वद्धमित्यर्थ - का० ) तथा नवीनता लिये हो उन्हें उपज्ञा या 'उपज्ञात' कहते थे । पाणिनि ने उपज्ञात ग्रन्थो का नाम निर्देश नही किया है, परन्तु काशिकाकार ने ही काशकृस्न, आपालि तथा पाणिनि के व्याकरण को इसके अन्तर्गत माना है । जिस प्रकार मान तथा तौल के नाप पहिले-पहल नन्द (राजा) ने चलाये थे। उसी प्रकार पाणिनि ने भी 'अकालक' व्याकरण की रचना की । पाणिनि के पहिले काल सूचित करने के लिए 'भवन्ती' (लट् ), परोक्षा (लिट् ), ह्यस्तनी (लड्), अद्यतनी (लुड्) आदि नाम पाये जाते थे । पाणिनि ने सबसे पहिले इन्हें हटाकर लकार के वारहखडी के साथ 'ट' या 'ड्' जोडकर अपनी मौलिक बुद्धि का परिचय दिया । इसीलिए पाणिनि का व्याकरण 'अकालक' ' कहा गया है । पाणिनि के फुफेरे भाई 'सग्रहकार' व्याडि ने भी दस लकारो के 'इ' 'ट्' के स्थान पर 'हुष' जोडकर नई पद्धति चलाई थी। अतएव इस नवीनता के कारण काशिका ने व्याड्युपज्ञ हुष्करणम् (दुष्करणम् नही) लिखा है ।
(४) कृत — (४३८७ ) – किसी ग्रन्थकार द्वारा बनाए गये ग्रन्थ के अर्थ मे इस शब्द का प्रयोग पाणिनि ने किया है । इस विभाग में अनेक ग्रन्थो का नाम पाया जाता है.
(१) शिशुक्रन्दीय अर्थात् बच्चो के रोने के विषय मे लिखे गये ग्रन्थ । (२) यमसभीय - - यमराज की सभा विषयक रचना ।
(३) इन्द्रजननीय इन्द्र की उत्पत्ति के बारे में रचा ग्रन्थ ४|३|८८ | (४) श्लोक - ( इसके कर्ता को 'श्लोककार' कहते थे ) ३ २२३ । (५) गाया ।
(६) सूत्र |
(७) पद 1
(८) 'महाभारत' शब्द का निर्देश ६ २ ३८ में किया गया है। सूत्रो मे जान पडता है कि पाणिनि को महाभारत युद्ध के प्रधान प्रधान पात्रो से पूरा परिचय था । पाणिनि ने ८ ३६५ में ज्येष्ठ पाण्डव नाम की व्युत्पत्ति बतलाई है और ४ ३ ६८ में न केवल वामुदेव और अर्जुन के ही नाम पाये जाते हैं भक्ति करने वाले लोगो की भी चर्चा पाई जाती है । श्रत पाणिनि 'महाभारत' को भलीभांति जानते थे । (१) ऋतुओ के विषय में लिखे गये ग्रन्थ ४ २ ६३ में वसन्त विपयक ग्रन्थ के पढने वाले का नाम 'वासन्तिक' कहा गया है ।
युधिष्ठिर के वरन् इनकी
(४ ४ १०२) में 'कथन' तथा 'कथा' में प्रवीण 'काथिक' लोगो का उल्लेख पाया जाता है, परन्तु मूत्र से यह नही जान पडता कि 'कथा' रचित ग्रन्थ थे वरन् यह केवल कहानियाँ थी, जो साधारणतया लोगो मे प्रसिद्ध रहती है। ४ ४ ११६ में 'कृतग्रन्य' का उल्लेख है । काशिका वृत्ति में वररुचि कृत श्लोक, हैकुपाद तथा भैकुराट ग्रन्थो के नाम दिये गये है । 'वाररुच काव्य' ( ४ | ३ | १०१ का भाष्य) का नाम महाभाष्य में भी पाया जाता है । सुभाषितावलि आदि सूक्तिग्रन्थो में भी 'वररुचि' के नाम मे श्लोक उद्धृत किये गये है । काशिका मे भी वररुचि के कवि होने की बात मत्य प्रमाणित होती है। राजशेखर ने वररुचि के काव्य का नाम कण्ठाभरण दिया है। बहुत सभव है कि महाभाष्य में उल्लिखित वाररुच काव्य यही हो
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यथार्थता कय नाम्नि मा भूद् वररुचेरिह | व्यधत्त कण्ठाभरण य सदारोहण प्रिय ॥
नन्दोपक्रमाणि मानानि ।
'पाणिनीयमकालक व्याकरणन् । -- काशिका । तेन तत्प्रथमत प्रणीतम् । स स्वस्मिन् व्याकरणे कालाधिकार न कृतवान् यास ।