SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 409
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७४ प्रेमी-प्रभिनंदन ग्रंथ द्वारा रचित ग्रंथो का वर्णन पाणिनि ने स्वय किया है । शाकल द्वारा प्रोक्त ग्रथ का उल्लेख ४ ३ १०६ मे किया गया । (ख) ब्राह्मण -- यह ध्यान मे रखना चाहिए कि पाणिनि ने ब्राह्मणग्रथो को वैदिक महिताओ की भाति 'दृष्ट' नही माना है, वल्कि उन्हें 'प्रोक्तग्रयों' की सूची मे अन्तर्भुक्त किया है । आजकल तो ब्राह्मण श्रुति के अन्तर्गत माने जाते हैं तथा वेद की भाति उनकी अपौरुषेयता भी प्रामाणिक मानी जाती है, परन्तु यह वर्णन माहित्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । ब्राह्मणग्रथो को पाणिनि ने 'छन्दम्' से भिन्न वतलाया है । पाणिनि ने ब्राह्मणो के विषय मे केवल इसी बात का उल्लेख किया है कि कुछ एक प्राचीन मुनियो द्वारा प्रोक्त थे । इसके अतिरिक्त किसी का व्यक्तिगत नाम नही दिया गया है (४ ३।१०५ ) | काशिका ने 'पुराणमुनियों से पाणिनि का आशय ' भत्लव' 'गाट्यायन' तथा 'ऐतरेय' से वतलाया है । अवश्य ही पाणिनि ने तीस या चालीस अध्याय वाले ब्राह्मणो की मज्ञा 'श' तथा ' चत्वारिंग' है ( ५ १६२ ) । ब्राह्मणो के अनुकरण पर वनने वाले 'अनुब्राह्मण' ग्रंथो का भी उल्लेख किया गया है (४/२/६३) । मत्रो की किसी प्रकार की अनुक्रमणिका का पता भी ( ४ ४ १२५-२७) लगता है, जो यज्ञो की सुविधा के लिए वनाई गई थी । उदाहरणार्थं जिनमे 'वयस्यान्' शब्द (४|४|१२७) तथा 'अश्विमान' शब्द पाये जाते है ( ४/४४१२६) उन मत्रो की एक पृथक् सूची थी । पूर्वोक्त बातो से तत्कालीन ब्राह्मण ग्रंथो के विषय में बहुत कुछ जानकारी की वातो का पता चलता है । पाणिनि के समकालीन ग्रथकारो मे वार्तिककार तथा उसके आधार पर काशिकाकार ने 'याज्ञवल्क्य' का नामोल्लेख किया है । (ग) उपनिषद् -- यद्यपि पाणिनि ने गथ के अर्थ मे 'उपनिषद्' शब्द का व्यवहार नही किया है, तथापि १४ ७९ से ज्ञात होता है कि उनका परिचय इन ग्रंथो से अवश्य था । पूर्वोक्त सूत्र का अर्थ है कि जीविका तथा उपनिषद् शब्द को औपम्य ( सादृश्य) के अर्थ मे गतिसज्ञा होती है । यदि ग्रंथकार को गब्दो के मूल अर्थ का पता नही होता तो उसे उनके उपमामूचक अर्थ में व्यवहार करना उचित नही था । जीविका के मूल अर्थ को जाने विना 'जीविका के तुल्य' का अर्थ स्पष्ट नही होता । इससे मेरी सम्मति मे उक्त मूत्र मे 'उपनिषद्' शब्द को श्रौपम्यार्थ - (रहम्यभूत के अर्थ ) में प्रयुक्त होने से पाणिनि की इन दार्शनिक ग्रथो से श्रभिज्ञता का पूरा पता चलता है । (घ) कल्पसूत्र---यज्ञ के अगभूत इन आवश्यक ग्रंथो का उल्लेख केवल साधारणतया ही ( ४ ३ १०५ ) किया गया है । इनमे प्राचीन मुनियो से प्रोक्त कल्पग्रथो का ही हाल दिया गया है, यद्यपि गयो के व्यक्तिगत नाम नहीं दिये गये हैं । काशिका ने 'पिङ्ग' तथा 'ग्ररुणपराज' नामक प्राचीन कल्पग्रथो के रचयिताओं के नाम दिये है जिनके द्वारा रचित कल्पसूत्र क्रमश 'सी' तथा 'अरुणपराजी' कहे जाते हैं । श्राधुनिक कल्प के कर्ता मुनियों में 'अमरय' का उल्लेख काशिकाकार ने किया है (सू० ४।३।१०५) । (ड) सूत्रग्रन्थ - पाणिनि के समय में सूत्रग्रथों की रचना का प्रचार खूब हो चला था । अनेक स्थानो पर सूत्रो का उल्लेख पाया जाता है। इनमें 'पराग' तथा 'कर्मन्द' के द्वारा प्रोक्त भिक्षु सूत्रो का नाम दिया गया है । 'भिक्षुसूत्र' सन्यासियो के प्रचार के द्योतक उनके जीवन दिशा को बतलाने वाले तथा उनके ध्यान मनन को बतलाने वाले—प्रय थे । इन सूत्रो का नाम पाणिनि को छोड कर और कही नही मिलता । भामतीकार वाचम्पति मिश्र की सम्मति मे पूर्वोक्त 'पराग' भिक्षुसूत्र से वादरायण व्यास रचित 'ब्रह्मसूत्र' से आगय है । उस काल में नाटककला की उत्पत्ति ही नही हुई थी वरन् विशेष उन्नति भी हो चुकी थी। नाटक करने वाले नट तथा उनके कार्य का उल्लेख स्पष्ट बतला रहा है कि जन साधारण में इसका प्रचार खूब था । 'शिलालि' तया 'कृशाश्व' द्वारा प्रोक्त नटसूत्रो के उल्लेख से भी नाटकीय कला की विशेष उन्नति तथा प्रचार का अनुमान सहज में ही लगाया जा सकता है (४३११०-१११) । सभवत भरत नाट्यशास्त्र वहुल प्रचार के कारण इन सूत्रो का लोप ही हो गया और आज तो वे अतीत काल के गर्भ मे सदा के लिए धँस गये है । (३) उपज्ञात - ( ४ ३ ११५ ) -- नये उपजवाले ग्रंथो के लिए यह शब्द प्रयुक्त किया जाता था । जो ग्रन्थ विलकुल ही मौलिक हो, जिसकी विना किसी के उपदेश से रचना की गई हो (विनोपदेशेन ज्ञातमुपज्ञात स्वयमभि
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy