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स्याद्वाद और सप्तभंगी
पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री
समार में समय-समय पर कुछ ऐसे महापुरुष जन्म लेते हैं, जो इस दृश्यमान जगत् के माया जाल में न फँस कर उनके भीतर छिपे हुए सत्य का रहस्योद्घाटन करने के लिए अपने जीवन का उत्सर्ग कर देते है । सत्य को जानना और जनता उसका प्रचार करना ही उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य होता है, किन्तु उनमे से बिरले ही पूर्ण सत्य तक पहुँचने में समर्थ होते है । अधिकाश व्यक्ति सत्य के एक प्रश को ही पूर्ण सत्य समझ भ्रम में पड कर अपने लक्ष्य से भ्रष्ट हो जाते है ।
इस प्रकार समार में दो तरह के उपदेष्टा पाये जाते है -- एक पूर्णदर्शी और दूसरे प्रपूर्णदर्शी या एकाशदर्शी । पूर्णदर्शी के द्वारा प्रकाशित सत्य ही 'अनेकान्तवाद' के नाम से ख्यात होता है, क्योंकि जो पूर्ण है वह अनेकान्त हैं और जो अनेकान्त है वही पूर्ण है— पूर्णता और अनेकान्तता का अभेद्य सवध है । इसके विपरीत, एकान्तदर्शी जिस सत्याश का प्रकाशन करता है वह एकान्त है, अत अपूर्ण है- -सत्य होते हुए भी असत्य है । कारण, सत्य के एक प्रण का दर्शी मनुष्य तभी प्राणिक सत्यदर्शी कहा जा सकता है जब वह उसे आशिक सत्य के रूप में स्वीकार करे । यदि कोई मनुष्य वस्तु के एक अक्ष को ही पूर्ण वस्तु सिद्ध करने की घृष्टता करता है तो न तो वह सत्यदर्शी है और न सत्यवादी ही कहा जा सकता है ।
सत्य का जानना जितना कष्ट साध्य है, उसका प्रकाशित करना भी अधिक नही तो उतना ही कठिन अवश्य है । इस पर भी यदि वह सत्य अनेकान्त रूप हो-एक ही वस्तु मे अस्ति नास्ति, नित्य-अनित्य, एक-अनेक आदि विरोधी कहे जाने वाले धर्मो को स्वीकार करता हो, भिन्न-भिन्न अशो का सुन्दर रूप में समन्वय करने में तत्पर हो तो वक्ता की कठिनाइयाँ और भी वढ जाती है । उक्त कठिनाइयो के होते हुए भी यदि सत्य को प्रकाशित करने के साधन पर्याप्त हो तो उनका सामना किसी तरह किया जा सकता है, किंतु साधन भी पर्याप्त नही है । कारण, शब्द एक समय में वस्तु के एक ही धर्म का प्रशिक व्याख्यान कर सकता है।
मत्य को प्रकाशित करने के एकमात्र साधन शब्द की इस अपरिहार्य कमजोरी को अनुभव करके पूर्णदर्शी महापुरुषो ने स्याद्वाद का आविष्कार किया ।
शब्द की प्रवृत्ति वक्ता के अधीन है। इसलिए वक्ता वस्तु के अनेक धर्मो मे से किसी एक धर्म की मुख्यता से वचन प्रयोग करता है, किन्तु इसका यह अर्थ नही है कि वह वस्तु सर्वथा उस एक धर्म स्वरूप ही है । अत यह कहना बेहतर होगा कि यहाँ पर विवक्षित धर्म की मुख्यता और शेष धर्मो की गौणता है। इसीलिए गौण धर्मो का द्योतक " स्यात् " शब्द समस्त वाक्यो के साथ गुप्त रूप से सम्बद्ध रहता है । 'स्यात्' शब्द का अभिप्राय " कथचित्" या "किसी अपेक्षा से' है, जैसा कि स्वामी समन्तभद्र के इस वाक्य से प्रकट है--"स्थाद्वाद सर्वयैकान्तत्यागात् किवृत्तचिद्विधि. " ( प्राप्त मीमासा )
भगवान् महावीर ने अपने अनुपम वचनो के द्वारा पूर्ण सत्य का उपदेश किया और उनका उपदेश ससार में 'श्रुत' के नाम से ख्यात हुआ । भगवान् महावीर के उपदेश का प्रत्येक वाक्य 'स्यात्' 'कथचित' या 'किसी अपेक्षा' से होता था, क्योकि उसके विना पूर्ण सत्य का प्रकाशन नही हो सकता । अत उनके उपदेश 'श्रुत' को प्राचार्य समन्तभद्र नेस्याद्वाद' के नाम से सर्वोोधित किया है ।
"स्याद्वादकेवलज्ञाने वस्तुतत्त्वप्रकाशने ।
भेद साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतम भवेत्” ॥ -आप्तमीमासा