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चौदहवीं सदी का गुजरात का राजमार्ग
श्री धीरजलाल धनजीभाई शाह बी० ए० दिल्ली में अपना प्रभुत्व स्थापित करके अलाउद्दीन खिलजी ने धीरे-धीरे अपने राज्य का विस्तार करना प्रारम किया। विक्रम् नवत् १३६६ तक तारा गुजरात उत्तके अधीन हो गया। इसी साल उसने जैनो के परम पवित्र तीर्थ यत्रजय के जार धावा बोल दिया और मूलनायक श्री आदीश्वर प्रभु की मूर्ति को उसकी सेना ने खडित कर दिया । इस ऐतिहासिक तथ्य का उल्लेख तत्कालीन 'तमरारातु' और 'नाभिनन्दन जिनोद्वार-प्रवन्ध में मिलता है।
'राम' और 'प्रबन्ध में कथा-वस्तु एक ही है। उकेश वभ की पांचवी पीढी में प्रह्लादनपुर (पालनपुर) में मनक्षण नामक एक जैन गृहत्य रहता था। उनके प्रपौत्र देशल ने पाटण में स्थिर होकर धन व प्रतिष्ठा प्राप्त की। उसके तीन पुत्र थे-महपाल, ताहणपाल और समरसिह । शत्रुञ्जय पर्वत की मूर्ति के खंडित होने का समाचार पाकर समरसिंह को वडा दुख झा और उकेश गच्छ के आचार्य सिद्धसरि के उपदेश से उक्त मन्दिर का जीर्णोद्धार कराने की तीव लालमा उनमें उत्पन्न हुई। पत जीर्णोद्धार के लिए पाटण के सूबे की आज्ञा प्राप्त कर उसने आरासण पर्वत में से सगमर्मर की एक वडी शिला मंगवाई और उसमे से एक विशाल प्रतिमा का निर्माण कराया। तदनन्तर पाटण ने एक विराट् सघ निकाल कर विक्रम संवत् १३७१ में शत्रुजय के मन्दिर का जीर्णोद्धार करा कर नवीन मूर्ति की प्रतिष्ठा की। वहां से गिरनार आदि स्थानो में होता हुआ सघ पाटण लौट आया।
रास-नाहित्य में 'समरारानु" की अनेक प्रकार की विशेषताएँ है। उसके रचयिता निवृतगच्छ के श्री अम्वदेवरि ननरसिंह के समकालीन थे। इतना ही नहीं, बल्कि समरसिंह के सघ में सम्मिलित हुए अनेक आचार्यों में से बेनीएक थे। इनदृष्टि ने भी यह 'रास' उपयोगी है। इसके अतिरिक्त उस समय की भाषा, सामाजिक व राजनैतिक परिन्यिति का उल्लेख उनमे मिलता है । यह न्यि प्राचीन गुजराती भाषा मे लिखा गया है।
नाभिनन्दन जिनोद्धार पवन्य' भी ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। उसके रचयिता श्री कक्कसूरि भी नमनिह के समकालीन थे और तप मे वह भी सम्मिलित हुए थे। 'समरारातु' का रचनाकाल हमें ज्ञात नही है, पर ऐसा अनुमान होता है कि विक्रम नवत् १३७१के आसपास उसका निर्माण हुआ होगा, क्योकि शत्रुञ्जय के जीर्णोद्धार के ममय रन्यकार वहां मौजूद थे। 'नाभिनन्दन जिनोद्धार प्रबन्ध' की रचना विक्रम सवत् १३६३ मे हुई। मनुजय के उद्धार के पश्चात् लगभग वीस वर्ष के भीतर की कृति होने के कारण उसमें सामाजिक एव राजकीय दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी सामग्री मिल सकती है। 'प्रबन्ध' मे २३४४ श्लोक हैं और उसके पांच प्रस्तावो मे ने प्रथम व अन्तिम प्रस्ताव गजरात के इतिहास और भूगोल के विषय मे अच्छा प्रकाश डालते है।
नाभिनन्दन जिनोद्वार प्रवन्ध में उस समय के समूचे गुजरात का बहुत ही सजीव चित्र मिलता है। थोडेने गन्दो मे लेखक ने उस प्रदेश का वडाही सुन्दर चित्र अकित कर दिया है। उन वर्णन में थोड़ी-बहुत कवि की कल्पना भी हो सकती है, फिर भी गुजरात का यथार्थ स्वल्प हमारे समक्ष आ ही जाता है।
उकेग वम के वनहकुल की चौथी पीढी में तल्लक्षण नाम का एक व्यक्ति उत्पन्न हुआ था। वह मारवाड के विराटपु नगर की अपनी दुकान पर वैश करता था। योग से गुजरात का एक सार्थवाहक अनेक किराणे लेकर उम नगर में आया। बाजार में होता हुआ जब वह जा रहा था तो सल्लक्षण ने कुतुहल से पछा “आप किस देश से
'देखिये 'प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह' भाग १, पृष्ठ २७ ।