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________________ चौदहवीं सदी का गुजरात का राजमार्ग ५५५ श्राये है और श्रापका वह देश कितना गुणवान व समृद्धिवान है ? उस देश के सर्वश्रेष्ठ नगर का विस्तृत वर्णन मुझे सुनाइए ।" सार्थपति ने कहा “हे महाबुद्धिमान, मैं गुजरात से आ रहा हूँ । वास्तव मे यदि मेरे मुख में एक हजार जिह्वा हो तभी में उस देश के गुणो का वर्णन कर सकता हूँ । फिर भी वहाँ के गुणो का सक्षेप मे वर्णन करता हूँ ।" और सार्थपति गुजरात का निम्न शब्दो में चित्र खीचता है "गुजरात देश की भूमि हर प्रकार की धान्य सम्पत्ति पैदा करने में समर्थ है । वहाँ बहुत से पर्वत है । कुएँ जल से भरपूर है । इसी कारण उस भूमि में जल का प्रभाव नहीं। वहाँ नारगी, मोसम्बी, जामुन, नीम, कदम, केल, सैजना, कैत, करोंदे, चिरौंजी, पीलु, श्राम, सीताफल, व्हेडा, खजूर, दाख, गन्ना, मालती, खस, जूही श्रादि अनेक प्रकार के फल-फूल व लताएँ है । आपके सामने में कितने वृक्षों के नाम गिनाऊँ ? सक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि ससार मे जितने फल-फूल वालं वृक्ष हो सकते है वे सब उस देश में विद्यमान है। इतना ही नही, उस देश की भूमि में एक ऐसा गुण है जिससे गेहूं, ज्वार, बाजरा, उरद, मूग, अरहर, धान सब तरह के अन्न पैदा होते है। वह के निवासी समुद्र तट पर थोडा सा व्यापार करके बहुत सा धन कमा लेते है । वहाँ सुपारी के टुकडे और नागरवेल के पान मनुष्य के मलीन मुख को रंगीन बना देते हैं । प्याऊ, कुएँ, तालाव और अन्न क्षेत्र आदि स्थलो मे ठहरने वाले कोई भी यात्री अपने माथ खाने-पीने की सामग्री नहीं रखते। वहाँ बटोहियो को चलने के लिए सघन वृक्षो की पक्ति मिलती है। इससे सूर्य का ताप कभी नही सताता । उस देश में शत्रुञ्जय, गिरनार आदि अनेक तीर्थं स्थित है, जो अपने उपासक भव्य जीवो की मोक्षपद प्राप्त कराते हैं । सोमनाथ, ब्रह्मस्थान, मूलस्थान तथा सूर्यतीर्थं श्रादि लौकिक तीर्थं भी वहाँ है । उस प्रदेश मे सब लोग गहरे लाल रंग के और रेशम के वस्त्र धारण करते है । वहाँ मनुष्यो के उपकार सदाचार व मिष्ट सम्भाषण से विद्वान पुरुष प्रसन्न होते है । यही कारण है कि उस देश को 'विवेकबृहस्पति' की उपाधि दी गई है। सचमुच ससार में जितने भी देश है, उनमें से कोई भी उसकी समता नही कर सकता । स्वर्ग तो मैने देखा नही । इसलिए उसके साथ इस प्रदेश की तुलना नहीं कर सकता । वहाँ के छोटे-छोटे ग्राम भी अतुल वैभवयुक्त होने के कारण नगरो के समान है और नगरो की गिनती तो में श्रापके सामने कर ही नही सकता, क्योकि स्तम्भतीर्थ आदि स्वर्ग जैसे असख्य नगर उस भूमि मे है । वहाँ पर प्रह्लादनपुर नाम का एक नगर है । मेरा अनुमान हैं कि स्वर्गलोक मे भी उसके जैसा शायद ही कोई नगर हो । चूकि उस नगर में धनोपार्जन के अनेक साधन मिल जाते हैं, इसलिए लोग उसे 'स्थल वेलाकूल' (जमीन का बन्दरगाह) के नाम से भी विभूषित करते है ।" यह वर्णन सुन कर व्यापारी सल्लक्षण का चित्त प्रह्लादनपुर (पालणपुर) जाने के लिए चचल हो उठा और वह थोडे ही दिनो में वहाँ पहुँच गया । इस सक्षिप्त वर्णन में कवि ने गुजरात के बारे मे अनेक बातो का उल्लेख किया है । उस प्रदेश की धान्यसम्पत्ति, वनवैभव, भूमि की उर्वरता श्रादि का तो पता चलता ही है, साथ ही यह भी मालूम होता है कि गुजराती लोग समुद्र के किनारो से व्यवसाय करते थे। जगह-जगह पर प्याऊ, कुएँ, तालाब और अन्नक्षेत्र थे और वहाँ का महामार्ग कैसा था । यात्री सघन वृक्षो की पक्ति के नीचे चलते थे । इसलिए उन्हें सूर्य का ताप नहीं सताता था । इससे स्पष्ट है कि मार्ग के दोनो ओर लम्बे-लम्बे छायादार वृक्ष रहे होगे और वह महामार्ग प्रावू से लेकर सौराष्ट्र तक की भूमि को सुशोभित करता चला जाता रहा होगा । इस महामार्ग की वास्तविक स्थिति का उल्लेख भी 'समरारासु' 'प्रबन्ध' में मिलता है । सम्भवत यही मार्ग राजमार्ग होगा और प्रतिदिन सैकडो की संख्या में मनुष्य और वाहन उसके ऊपर शान्तिपूर्वक चले जाते होगे । जय तीर्थ के उद्धार का निश्चय करके समरसिंह ने पाटण के सूबे अलपखान से उसके लिए श्राज्ञा प्राप्त ' देखिये 'नाभिनन्दन जिनोद्धार प्रबन्ध' प्रस्ताव २. श्लोक ३७-६३ ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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