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फोर्ट विलियम कॉलेज और विलियम प्राइस
श्री लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय एम्० ए०, डी० फिल्०
प्राचीन काल से भारत का व्यापारिक सम्वन्ध विदेशो से रहा है । अँगरेजो से पहले यूनान, रोम तथा अन्य पश्चिमी राष्ट्रो के साथ इस व्यापार का पता चलता है। यह व्यापार फारस की खाडी, लालसागर और भारत के उत्तर-पश्चिम से मध्य - एशिया वाले मार्गों से होता था । व्यापारी लोग इन मार्गों द्वारा, विशेषत फारस की खाड़ी से होकर, भारतवर्ष श्राते थे और यहाँ से माल खरीद कर विदेश भेजते थे । इससे भारतीय व्यापारिक उन्नति के साथ-साथ विदेशी व्यापारी भी धनोपार्जन करते थे ।
किन्तु पन्द्रहवी शताब्दी के लगभग मध्य से कुछ राजनैतिक कारणो मे यूरोप के व्यापारियो को भारतवर्ष और व्यापार करने में असुविधा होने लगी। उस समय निकटस्थ मुसलमानी राष्ट्रो का समुद्री व्यापार पर श्राधिपत्य स्थापित हो गया था । इसलिए यूरोप - निवासी भारतवर्ष के लिए एक नया समुद्री मार्ग खोजने के लिए अग्रसर हुए। यह कार्य पन्द्रहवी शताब्दी के मध्य से ही शुरू हो गया था ।
ईसा की अठारहवी शताब्दी तक स्पेन, पुर्तगाल, फ्रास, हॉलैंड, ब्रिटेन, स्वीडन, डेनमार्क, आस्ट्रिया आदि राष्ट्रो ने भारतवर्ष में अपनी-अपनी कम्पनियाँ खोली श्रोर कर्मचारी भेजे, परन्तु अँगरेजो की शक्ति और उनके प्रवल विरोध एव कूटनीति के कारण अन्य व्यापारिक सस्थाओ को कोई विशेष लाभ न हुया और उन्होने अपना काम वन्द कर दिया ।
अंगरेज भारतवर्ष में व्यापार करने आये थे । उनसे उन्होने अपार धन -सचय भी किया। देश के शासक वन बैठने का उनका विचार नही था, किन्तु योरोपीय प्रौद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप ब्रिटेन के तत्कालीन राजनैतिक सचालको की वृहत्तर ब्रिटेन की श्राकाक्षा से प्रोत्साहन ग्रहण कर तथा साथ ही पतनोन्मुख मुग़ल साम्राज्य की नाजुक परिस्थिति से लाभ उठाकर उन्होने देश में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया । प्रथमत वे अपनी व्यापारिक उन्नति में ही लगे रहे । १७५७ ई० में प्लासी युद्ध के फल-स्वरूप वगाल प्रान्त पर पूर्ण रूप से उनका अधिकार स्थापित हो गया । १७६४ ई० में वक्सर की लड़ाई के बाद उनकी सैनिक शक्ति और भी बढी । अवध और बिहार की दीवानी भी उनके हाथ में आ गई । इस प्रकार धीरे-धीरे उन्होने उत्तर भारत में अपने शासन की जड जमा ली । क्लाइव द्वारा स्थापित यह साम्राज्य देश के पूर्व प्रतिष्ठित साम्राज्यो से अनेकाश में भिन्न था। १७८७ ई० के वाद भारतवर्ष मे स्थापित ब्रिटिश आधिपत्य के सचालन का भार उन लोगो को सौपा जाने लगा, जिन्हें इस देश के सम्वन्ध में कुछ भी अनुभव
ही था और जो इगलैड के शासक वर्ग के प्रतिनिधि थे । ये व्यक्ति वहाँ के मन्त्रि-मंडल द्वारा नियुक्त किये जाते थे । स्वभावत वे अपने देश में प्रचलित राजनैतिक विचार लेकर यहाँ आते थे । उन्होने भारत में स्थापित ब्रिटिश साम्राज्य का भारतीय प्रथा के अनुसार नही, वरन् 'बृहत्तर ब्रिटेन' की भावना से प्रेरित होकर शासन करना प्रारम्भ किया । इस नीति का अनुसरण कर और भारतीय नरेशो के सन्धि विग्रह में पडकर उन्होने भारतवर्ष में अँगरेज़ी साम्राज्य की नीव सुदृढ बना दी ।
ऐसे व्यक्तियो में लॉर्ड वेलेजली का नाम प्रमुख रूप से लिया जा सकता है । वे १७६८ ई० से १८०५ ई० तक गवर्नर-जनरल रहे । टीपू सुलतान, निज़ाम, फासीसियो और मरहठो को पराजित करने में उन्होने पूरी शक्ति लगा दी । उनके समय में कम्पनी की शक्ति भारतीय राजनैतिक गगन में सूर्य के समान चमक उठी । '
कम्पनी के राज्य में एक नवीन शासन प्रणाली और राजनीति का बीज बोया गया। भारतीय शासन व्यवस्था के इतिहास में यह एक युगान्तकारी घटना थी ।