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प्रेमी-अभिनदन-प्रय __ हिन्दी गद्य की तीन धारामो मे-दो भक्ताचार्यों को और एक रीत्याचार्यों की केवल प्रथम का विकास कुछ क्रम से हुआ और इसके प्रमाण-स्वस्प अन्य मिलते भी हैं। इन सव की भाषा क्रमश विकसित और व्यवस्थित होती गई है। अन्य दोनो रूपो की-भक्ताचार्यों की पडिताऊ और रीत्याचार्यों की शास्त्रीय भाषा अव्यवस्थित और शिथिल है। सोलहवी, सत्रहवी और अठारहवी शताब्दी में ऐसी भाषा के अन्य भी मिलते है और प्रथम प्रकार की व्यवस्थित और विकसित भाषा के भी। यही देखकर हमारे इतिहास लेखक आश्चर्य में पड़ जाते हैं और कभी-कभी लिख मारते है कि हिन्दी गद्य का क्रमश विकास नहीं हुआ। वस्तुत तथ्य यह है कि प्रत्येक शताब्दी मे गद्यग्रन्थ रचे तो अवश्य गये, परन्तु उनके लेखको का लक्ष्य गद्य-साहित्य की उन्नति करना नहीं था। वे ग्रन्य रचते थे और परोक्ष रूप से इस प्रकार गद्य की उन्नति होती गई।
लखनऊ
गीत
श्री सोहनलाल द्विवेदी
करुणा की वर्षा हो अविरला सन्तापित प्राणों के ऊपर लहरे प्रतिपल शीतल अंचल !
मलयानिल लाये नव मरन्द,
विकसें मुरझाये सुमनवृन्द, सरसिज में मधु हो, मधुकर के मानस में मादक प्रीति तरल !
कोकिल को सुन कातर पुकार
आये वसन्त ले मधुर भार, कानन की सूखी डालों में, फूटें नवनव पल्लव कोमल !
काली रजनी का उठे छोर ।
लेकर प्रकाश नव हसे भोर, अवनी के प्रांगन नें ऊषा, बरसाये मगल कुकमजल!
करुणा की वर्षा हो अविरल!
विदफी]