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________________ अहार और उसकी मूर्तियाँ श्री यशपाल जैन वी० ए०, एल-एल० वी० पुरातत्व की दृष्टि मे वुन्देलखण्ड एक बहुत ही समृद्ध प्रात है। स्थान-स्थान पर ऐमी सामग्री पाई जाती है, जो पुरातत्वों के लिए वडी महत्वपूर्ण है । पुरातत्व विभाग के युक्तप्रातीय नकिल के सुपरिटेण्डेण्ट श्री माधवस्वरूप जी 'वत्स' तया डा० वासुदेवशरण जो अग्रवाल के साथ हमें देवगढ के गुप्तकालीन विष्णुमदिर के देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उन्होने वारीको के नाथ जव उक्त मदिर की विशेषताएं समझाई तो हम आश्चर्यचकित रह गये कि उम छोटे-से मदिर में कितनी मूल्यवान सामग्री मौजूद है। इसी प्रकार खजुराहा, चदेरी, महोवा, कालजर, साची आदि स्यान है, जिनके वर्तमान रूप को देखकर हम कल्पना कर मकते है कि किसी जमाने मे वे कितने गौरवशाली रहे होगे। ऐसे स्यानो मे से कई एक तो प्रकाश में आ चुके है, लेकिन कुछ ऐसे भी है, जिनकी ओर अभी तक विशेष ध्यान नहीं दिया गया। अहार एक ऐसा ही स्थान है । ओरछा राज्य की राजधानी किमगढ से बारह मील पूर्व में वह स्थित है। वहाँ की प्राकृतिक सुषमा को देख कर प्राचीन तपोवनो का स्मरण हो आता है, लेकिन प्रहार का महत्व केवल उनके प्राकृतिक सौंदर्य के कारण ही नहीं, बल्कि वहाँ की मूर्तियो के कारण है । ये मूर्तियां वही ही मनोज्ञ और भव्य है। अहार ग्राम के दो-ढाई मोल इधर से ही मूर्तियां यत्रतत्र पडी मिलने लगती है । मदनसागर के वांव पर, जिसके निकट ही अहार के मदिर है, एक विशाल मदिर के भग्नावशेष दिखाई देते है। जिन पत्यरो से न मदिर का निर्माग हुआ था, उनमें से बहुत से आज भी वहाँ अस्त-व्यस्त अवस्था में पड़े हुए है। उनको कारीगरी का अवलोकन कर मन आनद से भर उठता है । इधर-उधर पहाडियो की चोटियो पर भी बहुत से मदिरो के अवशेष मिलते हैं। कहा जाता है कि प्राचीन काल में यहाँ लगभग डेढ सी मदिरो का समुदाय था और भगवान शान्तिनाय की प्रतिमा के आमन पर उत्कीर्ण शिलालेख से पता चलता है कि किसी ममय वहां एक विशाल धेरे में 'मदनसागरपुर' नामक नगर वसा था। इधर-उधर परकोटो के जो चिह्न मिलते है, उनसे उक्त कथन की पुष्टि हो जाती है। ___ अहार में इस समय ढाई-नोन सौ प्रतिमानो का सग्रह है, जिनमें से अधिकाश खण्डित है। किनी का हाय गायव है तो किमो का पैर, किनी का सिर तो किसी का धड, लेकिन जो अग उपलब्ध है, उन्हें देखने पर उनके निर्माताप्रो को कला-प्रियता तथा कार्य-पटुता का अनुमान लग जाता है। इन मूर्तियो को प्राचीन वास्तु-कला का उत्कृष्ट नमूना कहा जा सकता है। किसी के मुखमण्डल पर अनुपम हास्य है तो किसी के गभीरता। किसी भी प्रतिमा को देख लोजिये । उसकी सुडौलता में कही वाल भर का भी अतर नही मिलेगा। आज के मशीन-युग में तो सब कुछ समव है, लेकिन तनिक उन युग की कल्पना कीजिये, जब मशीने नही थी और सारा काम इनेगिने दस्ती औजारो की मदद से होता था। जरा हाथ डिगा अयवा छैनी इधर-उधर हुई कि बना-बनाया खेल विगडा। सभी प्रतिमानो की पालिश आज आठ सौ वर्ष बाद भी ज्यो-की-सी चमकती है। अहार क्षेत्र के अहाते मे इस समय तीन मदिर है। उनमें से दो तो हाल के ही बने हुए है। तीसरा प्राचीन है। बाहर मे देखने में वह बहुत मामूली-सा जान पड़ता है। उसके अदर वाईम फुट को शिला पर अठारह फुट की भगवान भान्तिनाय की मूर्ति है । वाएँ पार्श्व मे ग्यारह फुट की कुन्थुनाथ भगवान की प्रतिमा है। कहा जाता है कि उमो के अनुरूप दाएँ पार्श्व में अरहनाथ भगवान की प्रतिमा थी, जिसका अव कोई पता नहीं चलता। प्रस्तुत प्रतिमाएं अत्यन्त भव्य है। उनके मुवमण्डल की तेजस्विता और भव्यता को देख कर हमे अद्भुत आनद और शाति प्राप्त हुई। श्रद्धेय नाथूराम जाप्रेमी का कथन था कि उन्होने जैनियो के बहुत से तीर्थ देखे है और भगवान शातिनाथ
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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