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सिद्धसेन दिवाकरकृत वेदवादद्वात्रिंशिका
प० सुखलाल सघवी प्रास्ताविक
यहाँ जिस बत्तीसी का विवेचन करना इष्ट है, वह वत्तीसी अपने नाम के अनुसार वैदिक परम्परा के तत्त्वज्ञान से सम्बन्ध रखती है । सिद्धसेन दिवाकर ने जैन परम्परा के साथ खास सम्वन्ध रखने वाले विषयो के ऊपर जिनजिन कृतियो की रचना की है सम्भावना यह है कि वे सब उन्होने जैन- दीक्षा स्वीकार करने के बाद ही लिखी होगी । क्योकि वे जन्म से और मस्कार से ब्राह्मण- परम्परा के थे इसलिए जैनसघ में प्रविष्ट होने के पहले जैन - परम्परा से सम्बन्ध रखने वाली गम्भीर और प्रभावक कृति निर्माण कर सके ऐसा ज्ञान तो शायद ही प्राप्त कर सकते । परन्तु उनकी जो-जो सस्कृत कृतियाँ जैनेतर विषयो के ऊपर या सर्वसामान्य विषयो के ऊपर है, उनकी रचना उन्होने जैन-दीक्षा स्वीकार करने के पहले भी की होगी ऐसा सम्भव है । चाहे जो हो, फिर भी ब्राह्मण-परम्परा के अनुसार मिसेन का छोटी अवस्था से ही वेदो, उपनिषदो, गीता और पुराणो का बलवद् अध्ययन और परिशीलन था - इस बात की माक्षी तो प्रस्तुत वेदवादद्वात्रिशिका ही अकेली दे सकती है । सिद्धसेन मे कवित्व और प्रतिभा के चाहे जैमे स्फुट : वीज जन्मसिद्ध होते, परन्तु यदि उनका मानस वेद-वेदान्त आदि ब्राह्मण ग्रन्यो का अध्ययन और परिशीलनजन्य मस्कारो से परिपूर्ण न होता तो वे कभी वैदिक भाषा, वैदिक छन्द, वैदिक शैली और वैदिक रूपको तथा कल्पनात्रो के द्वारा वेद तथा उपनिषद्गत मान्यता या तत्त्वज्ञान को इस एक ही बत्तीसी मे इतनी सफलता से ग्रथित नही कर सकते ।
प्रस्तुत बत्तीसी का विवेचन करने के पहले यह जानना आवश्यक है कि इसमे सिद्धसेन ने सामान्यरूप से किस विषय का प्रतिपादन किया है । यद्यपि बत्तीसी के ऊपर कोई टीका या सक्षिप्त टिप्पणी भी नही है, इसलिए मिद्धमेन के विवक्षित अर्थ को जानने का माघन केवल मूल बत्तीमी ही है । परन्तु इस बत्तीसी की तुलना जब वेद के मन्त्र, ब्राह्मण और उपनिपभाग के साथ तथा गीता आदि इतर वैदिक माने जाने वाले ग्रन्थो के साथ करते है तब इसका सामान्य भाव क्या है, वह स्पष्ट हुए बिना नही रहता ।
प्रस्तुत वत्तीसी का हृदय समझने के लिए उपर्युक्त ग्रन्थो के साथ उसकी पुन -पुन तुलना और विचारणा करते समय मेरे मन पर ऐसी छाप पडी है कि सिद्धसेन ने प्रस्तुत वत्तीसी में मुख्यरूप से साख्य-योग के तत्त्वज्ञान का उपयोग करके ब्रह्म अथवा श्रौपनिषद' पुरुष का वर्णन किया है । प्रस्तुत वत्तीसी का प्रत्येक पद, प्रत्येक पाद या तद्गत प्रत्येक
'ब्रह्म शब्द के अनेक अर्थों की तरह पुरुष शब्द के भी अनेक अर्थ है । उनमें से श्वेताश्वतर में प्रयुक्त 'त्रिविध ब्रह्ममेतत्' (१, १२) यह पद ध्यान में लेने जैसा है। प्रधानात्मक भोग्य ब्रह्म जीवात्मक भोक्तृ ब्रह्म और ईश्वरस्य प्रेरक ब्रह्म - यह त्रिविधि ब्रह्म है । और यही त्रिविध ब्रह्म गीता ( १५ १६, १७ ) का क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष और पुरुषोत्तम यह त्रिविधि ब्रह्म है । उनमें से जो पुरुषोत्तमरूप प्रतिम ब्रह्म है, जिसको सेश्वर साख्य में पुरुषविशेष कहा है उसका ही बत्तीसी में मुख्यरूप से वर्णन है । यह वस्तु ३१ वें पद्य के 'तेनेद पूर्ण पुरुषेण सर्वम्' इस पाद से स्पष्ट सूचित होती है । यही पुरुष श्रौपनिषद है । उपनिषद्काल के समग्र चिंतन के परिणामरूप से जो एक स्वतन्त्र चेतन तत्त्व सिद्ध हुआ है वही श्रीपनिषद पुरुष है । इस तत्त्व के लिए श्रौपनिषद विशेषण बृहदारण्यक ( ३. ε२६) में दिया हुआ है वह यह सूचित करता है कि उपनिषद् के चिंतन के पहिले ऐसा चेतनतत्त्व सुनिश्चितरूप से सिद्ध नहीं हुआ था और इस तत्त्व की मान्यता उपनिषद् की ही प्रभारी है ।