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________________ ३८३ प्रतिभा-मूर्ति सिद्धसेन दिवाकर "मनुष्यवृतानि मनुष्यलक्षणैर्मनुष्यहेतोनियतानि ते स्वयम् । अलव्यपाराण्यलसेषु कर्णवानगावपाराणि कय ग्रहीष्यति ॥" (६ ७) हम सभी का यह अनुभव है कि कोई मुमगन अद्यतन मानवकृति हुई तो उमे पुराणप्रेमी नहीं छूते जब कि वे ही किमी अम्न-व्यस्त और अमवद्ध तथा समझ में न ा नके, ऐसे विचार वाले गास्त्र के प्राचीनो के द्वारा कहे जाने के कारण प्रगमा करते नही अघाते । इस अनुभव के लिए दिवाकर इतना ही कहते है कि वह मात्र स्मृति मोह है, उसमें कोई विवेकपटुता नहीं-- "यदेव किंचिद्विपमप्रकल्पित पुरातनरुक्तमिति प्रशस्यते।। विनिश्चिताऽप्यद्य मनुष्यवाक्कृतिर्न पठ्यते यत्स्मृतिमोह एव स ॥" (६८) हम अन्त में इस परीक्षाप्रवान वत्तीमी का एक ही पद्य भावमहित देते है "न गौरवाक्रान्तमतिविगाहते किमत्र युक्तं किमयुक्तमयंत । गुणाववोचप्रभवं हि गौरव कुलागनावृत्तमतोऽन्यथा भवेत् ॥” (६ २८) भाव यह है कि लोग किमी-न-किमी प्रकार के वडप्पन के प्रावेश ने, प्रस्तुत में क्या युक्त है और क्या अयुक्त है इसे तत्त्वत नहीं देखते। परन्तु मत्य बात तो यह है कि वडप्पन गुणदृष्टि मे ही है । इसके अतिरिक्त और जो बडप्पन है वह निरा कुलागना चरित है। कोई अगना मात्र अपने खानदान के नाम पर सद्वृत्त मिद्ध नहीं हो सकती। उपसहार में मिद्धसेन का एक पद्य उद्धृत करता हूं, जिसमें उन्होने वार्ट्यपूर्ण वक्तृत्व या पाण्डित्य का उपहाम किया है "देवखात च वदनं प्रात्मायत्त च वाङ्मयम् । श्रोतार सन्ति चोक्तस्य निर्लज्ज. को न पण्डित ॥" (२२.१) माराग यह है कि मुख का गड्ढा नो देव ने ही खोद रक्खा है। प्रयल यह अपने हाय की बात है और सुनने वाले सर्वत्र मुलभ है। इसलिए वक्ता या पडित बनने के लिए यदि जरूरत है तो केवल निर्लज्जता की है। एक वार वृष्ट वन कर वोलिए फिर मव कुछ सरल है। वंबई ]
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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