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मानव और मैं
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स्वय बन्धनो में बंधा मै व्यथा के, बदल भी गये रूप जीवन-कथा के, चला मै बुरे पन्थ पर, नेक पथ पर , प्रयोगी वना किन्तु बैठा न 'अर्थ' पर , चलूंगा भले ही बुरा मार्ग ही हो, चलूंगा भले ही भला मार्ग ही हो, मिलेगी बुराई उसे त्याग दूंगा, मिलेगी भलाई उसे भाग लूंगा , कहो मत कि ठहरूं, ठहरना नहीं है। चलूंगा उधर देर भी हो रही है, उछलता, उमडता तथा तोडता मै ,
नई सांस ले, स्वर नये जोडता मैं। कि हर भूल से है जुड़ा सत्य का पथ, रुकेंगे नहीं, लक्ष्य को पायेंगे ही।
न मैं चाहता मुक्ति को प्राप्त करना , न मैं चाहता व्यक्ति-स्वातन्त्र्य हरना, सभी विश्व मेरा, सभी प्राण मेरे। चलूंगा सभी विश्व को साथ घेरे , सभी स्वप्न है देखते एक मजिल , सभी जागरण में निहित एक ही दिल , जहां फूलता विश्व खिलता रहेगा, लहर से जहां शशि मचलता रहेगा, नरक भी जहाँ स्वर्ग बनकर खिलेगा, प्रलय में जहां सृष्टि का स्वर मिलेगा, जहाँ अन्त में 'अर्थ' नये प्राण भर कर , प्रगति में प्रखर सत्य का ज्ञान भर कर, वहां सांस निर्माण का स्वर सुनाती ,
वहां भूल नवलक्ष्य का पथ दिखाती। नियत के, प्रगति के कदम दो बढ़ाकर, किसी दिन किसी लक्ष्य को पायेंगे ही। तिमिर में, प्रलय में, न तूफान में भी-कदम ये रुके है, न रुक पायेंगे ही ॥
लाहौर]