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________________ प्रेमी-प्रभिनंदन ग्रंथ पहले उदाहरण में एकत्व मे दो का सयोग व्यवहार का प्रयोजक है । दूसरे उदाहरण मे सबध के कारण जीव मे भिन्न द्रव्य के गुणो का आरोप व्यवहार का प्रयोजक है । तीमरे उदाहरण मे निमित्त की प्रधानता व्यवहार का प्रयोज्क हैं । चौथे उदाहरण मे निमित्त की अपेक्षा नामकरण व्यवहार का प्रयोजक है। पांचवे उदाहरण में ज्ञायक ने शेयों की भिन्नता व्यवहार का प्रयोजक है और छठ उदाहरण में नवध व्यवहार का प्रयोजक है । ३५४ इनमे ने पहला, दूसरा और छठा ये अद्भूत व्यवहार के उदाहरण है, वयोकि वास्तव मे जीव वैसा तो न्हीं हैं । नयोग ने जीव में उन धर्मो का आरोप किया गया है । तीसरा, चौथा और पाँचवाँ ये नद्भूत व्यवहार के उदाहरण हैं, क्याकि यद्यपि ये नव अवस्थाएँ जीव की ही है । फिर भी इनके होने में पर की अपेक्षा रहती है । इमलिए ये व्यव्हार कोटि मे चली जाती है । निश्चयनय की अपेक्षा उनकी व्याख्यानशैली मुरयत दो भागो मे वॅट जाती है। एक मे जानादि गुणो द्वारा आत्मा का कथन किया गया है और दूसरी मे अन्य द्रव्यो के गुणो या सयोगी भावो के निषेध द्वारा आत्मा का कथन किया गया है । इनसे हमारी आँखो के सामने सगुण और निर्गुण ब्रह्म की कल्पना साकार रूप धारण करके या उपस्थित होती है । व्यवहार और निश्चयनय के इस विवेचन से प्रभूतार्थत्व और भूतार्थत्व के स्वरुप पर पर्याप्त पकाग पड जाता है । यहाँ 'भूत' शब्द उपलक्षण है । अत यह अर्थ हुआ कि वन्तु जिस रूप न थी, न है, और न रहेगी, तद्रूप उसको मानना अभूतार्थनय है तथा जो वस्तु जिस रूप थी, है और रहेगी तद्रूप उसको मानना भूतार्थनय है । पयोजन मूल वस्तु का ज्ञान कराना है । अत जिन धर्मो का उपादान जीव है, किन्तु जो अन्य निमित्तो की अपेक्षा से होते हैं, उन्हे भी भूतार्थंनय जीव का स्वीकार नही करता । किन्तु इससे वे 'वर्णादिक जीव के है' इस कथनी की कोटि मे तो पहुँच नही जाते । कार्य उपादान रूप ही होता है । इसलिए उसे उपादान का ही मानना होगा । किन्तु भूतार्थनय निमित्त को तो देखना नही । उसकी दृष्टि मे तो कारण परमात्मा और कार्य परमात्मा एक ही वस्तु है । अत वह इन्हें जीव का स्वीकार नहीं करता । यह इसका मथितार्थ है । तभी तो भगवान् कुन्दकुन्द नियमसार की गाथा ४७ और ४८ मे लिखते है, "जिस प्रकार सिद्धात्मा जन्म, जग और मरण में रहित है, ग्राठ गुण सहित है, अशरीर है, अविनाशी है आदि उसी प्रकार ससार मे स्थित जीव भी जानने चाहिए ।" इस प्रकार नूतार्थ और प्रभूतार्थ का निर्णय कर लेने के वाद अव हम प्रकृत विषय केवलज्ञान पर आते है । आचार्यं कुन्दकुन्द 'प्रवचनसार' की गाथा ४७ मे लिखते हैं, "जो' त्रैकालिक विचित्र और विषम सब पदार्थो को एक नाथ जानता है, वह क्षायिक ज्ञान है ।' तदनन्तर इस तत्व का ऊहापोह करते हुए वे गाथा ४= और ४६ मे लिखते हैं कि “जो त्रैकालिक सव पदार्थों को नही जानता है वह पूरी तरह एक पदार्थ को भी नही जानता है और जो पूरी तरह से एक पदार्थ को नही जानता है वह सव पदार्थो को कैसे जान सकता है ? ' उनका यह विवेचन 'आचाराग' के 'जो एक को जानता है वह सव को जानता है और जो सव को जानता है वह एक को जानता है ।" इस कथन से मिलता हुआ है । इसमे तो मदेह नही कि इन दोनो सूत्रग्रथों के ये समर्थन वाक्य है, जिनके द्वारा सर्वज्ञत्व का ही नमर्थन किया गया प्रतीत होता है । किन्तु जब हम नियमसार की गाथा १५ = पर दृष्टिपात करते है तब हमे वहाँ किसी दूसरी वस्तु के ही दर्शन होते हैं । वहाँ आचार्य कुन्दकुन्द की सर्वज्ञत्व के समर्थन वाली दृष्टि बदल कर आत्मतत्त्व के 'जारसिया सिद्धप्पा भवमल्लिय जीव तारिता होति | नियमसार गाथा ४७-४८ । 'ज तक्कालियमिदर जाणदि जुगव समंतदो सव्व । श्रत्यं विचित्तविसम तं णाण खाइय भणिय ।' * जो ण विजाणदि जुगव श्रत्ये तिक्कालिगे तिहुवणत्ये । गादु तस्स ण सक्क सपज्जय दव्वमेग वा ॥ ४८ ॥ ‘दव्व प्रगतपज्जयमेगमणताणि दव्वजादीणि । ण विजानदि जदि जुगव किघ सो सव्वाणि जाणादि ॥ ४६ ॥ * जे एग जाइ से सव्व जाणइ । जे सव्व जाणह से एग जाणइ । आचारांग सूत्र १२३ । 1
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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