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सर्वज्ञता के प्रतीत इतिहास की एक झलक
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की दिशा ही बदल जाती है । यह है धर्मकीर्ति का मानम, जिमसे उसने सर्वज्ञता की अपेक्षा धर्मज्ञता पर अधिक जोर दिया ।
(५) आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि मे
इतने विवेचन के बाद भी भगवान कुन्दकुन्द ने केवल ज्ञान के विषय में क्या लिखा है, यह जानना श्रावश्यक हैं, क्योकि उन्होने प्रत्येक वस्तु के स्वरूप को समझने के लिए जो मार्ग सुनिश्चित किया है उसमे सत्य तक पहुँचने बढी सहायता मिलती हैं । भगवान् कुन्दकुन्द की व्याख्यानशैली व्यवहारनय और निश्चयनय पर श्राश्रित है । श्रुत पहले उन्ही के वचनो में इन दोनो नयो को ममझ लेना जरूरी है । 'समयप्राभृत' में वे लिखते है
ववहारोऽभूदत्यो भूदत्यो देसिदो दु सुद्धणश्रो ।
भूदत्यमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो ॥१३॥
श्रर्थात् — "ममय में व्यवहारनय को प्रभूतार्थ श्रीर शुद्वनय को भूतार्थ बतलाया है । इनमें से भूतार्थं का श्राश्रय करनेवाला जीव सम्यग्दृष्टि है ।"
इसमे व्यवहार र निश्चयनय के स्वम्प पर तो प्रकाश पड जाता है। तब भी भूतार्थ और प्रभूतार्थ का समझना गप रहता है । उन्होने श्रभूतार्थं श्रौर भूतार्थ की मर्यादा का स्वय निर्दण नही किया है, फिर भी उनकी व्यायन शैली से इसका पता लग जाता है । अत यहाँ इसका निर्देश कर देना ही श्रावश्यक प्रतीत होता है । उनकी व्याम्यानशैली में निम्न बातो को अपनाया गया जान पडता है-
(१) जीव' और देह एक है यह व्यवहारनय है । जीव श्रीर देह एक नही, किन्तु पृथक्-पृथक् है, यह निश्चयनय है ।
(२) वर्णादिक' जीव के है यह व्यवहारनय है । तथा ये जीव के नही है यह निश्चयनय है । (३) रागादिक जीव के हैं यह व्यवहारनय है । श्रोर ये जीव के नहीं है यह निश्चयनय है । (४) क्षायिक * श्रादि भाव जीव के है यह व्यवहारनय है । किन्तु शुद्ध जीव के न क्षायिक भाव होते श्रीर न अन्य कोई यह निश्चयनय है ।
(५) केवली भगवान् सबको जानते श्रीर देखते है,' यह व्यहारनय है, किन्तु अपने श्रापको जानते श्रीर देखते है, यह निश्चयनय है ।
(६) शरीर' जीव का है ऐसा मानना व्यवहार है और शरीर जीव से भिन्न है ऐसा मानना निश्चय है । म प्रकार ऊपर जो हमने छ बातें उपस्थित की है उनसे व्यवहार श्रीर निश्चय की कथनी पर पर्याप्त प्रकाश पड जाता है । यहाँ इनसे भिन्न और भी उदाहरण उपस्थित किये जा सकते हैं, पर इससे लेख का कलेवर वढ जायगा और यह स्वतन्त्र विषय है ।
इन सब उदाहरणों से एक ही बात फलित होती है कि जहाँ 'स्व' से भिन्न 'पर' का किसी भी प्रकार का मवध श्रा गया उमे श्रात्मा का मानना व्यवहार है । यद्यपि क्षायिक ज्ञान और केवलज्ञान मे कोई ग्रन्तर नही है परन्तु केवलज्ञान को श्रात्मा का कहना निश्चयनय है और क्षायिकज्ञान को ग्रात्मा का कहना व्यवहारनय है । यहाँ मे भेदाभेद को ध्यान में रखकर विचार नही कर रहा हूँ । इमसे वस्तु के विवेचन करने में और भी सूक्ष्मता श्रा जाती है, जो प्रकृत मे गौण है । यहाँ तो केवल देखना यह है कि भगवान् कुन्दकुन्द ने कितने ग्रंथ म व्यवहार और निश्चय का प्रयोग किया है ।
'देखो समयप्राभत गाथा ३२
देखो समयप्राभृत गाथा ५१
५
'देखो नियमसार गाथा १५८
૪૫
देखो समयप्राभृत गाया ६१
* देखो नियमसार गाथा ४१
६
'देखो समयप्राभूत गाथा ५५