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प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ पन्-ि "यह विद्या इसके पहले किनी ब्राह्मण को नहीं मिली उसी का उपदेश मै तुमको करता हूँ।'
उपनिषदो के इन उल्लेखो मे रहस्य मालूम होता है। इनसे मुझे इन्द्र और गौतम गणधर के सवाद का स्मरण हो जाता है। मालूम होता है कि सारी अध्यात्म विद्या वैदिको को श्रमणो से प्राप्त हुई है। मोमासा के दो भेद है-पूर्व मीमासा और उत्तर मीमासा। पूर्व मीमाना मे यज्ञादि कर्गे की विधि और मन्न प्रादि का वर्णन है। इनलिए इसे कर्मकाण्ड कहते है। उत्तर मीमामा में अध्यात्म विद्या का वर्णन है। इसलिए इसे ज्ञानकाण्ड कहते है। कर्मकाण्ड का सीधा सबध वेदो मे है और ज्ञानकाण्ड का उपनिषदो से। उपनिषदो का सकलन वेदो के बहुत काल बाद हुअा है। वैदिको ने कर्मकाण्ड से अपना काम चलता न देखकर ही इस पध्यात्म विद्या को अपनाया। फिर भी शुद्ध मीमामा मे इसे महत्व का स्थान प्राप्त नहीं। ब्राह्मणधर्म मे यज्ञादि क्रियाकाण्डकी जो श्रेष्ठता है वह मोक्ष की नहीं। भ्रमणधर्म और ब्राह्मणधर्म का अतर इसी से समझ में आ जाता है। इस प्रकार हम देखते है कि ब्राह्मणो ने श्रमणो की अध्यात्म विद्या को अपनाया तो मही, किन्तु वे उसके सारे तत्वो को ययावत् रूप मे न अपना मके। उनके सामने वेदो की प्रतिष्ठा का सवाल खडा हो रहा । इमलिए उन्होने श्रमणो को महत्व देना उचित न समझा। बस यही एक प्रेरणा है, जिससे उन्होने पुरुष की मर्वज्ञता का निषेध किया। किन्तु जब हम उपनिषदो मे 'य पात्मवित् स सर्ववित्' इत्त प्रकार के वाक्य देतते है तो मालूम होता है कि सर्वज की 'सव्वे जाणइ' वाली मान्यता बहुत पुरानी है। इतना ही नहीं, बल्कि वह श्रमणधर्म की आत्मा है ।
___ इतने विवेचन ने यद्यपि हम इस निर्गय पर तो पहुँच जाते हैं कि दर्शन युग के पहले सर्वज्ञता का वही स्वरूप माना जाता था, जिसका दार्शनिको ने विस्तार से उहापोह किया है तथा इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि धर्मज्ञता या ग्रात्मजताको क्रमिक परिभापानो ने नर्वज्ञता के वर्तमान रूप की मृष्टि नहीं की। अब देखना यह है कि वौद्ध-गुरु धर्मकीति ने नर्वज्ञता की अपेक्षा धर्मज्ञता पर ही अधिक जोर क्यो दिया ? जब वह सर्वज्ञता का विरोधी नहीं था और यह जानता था कि नर्वज्ञता के भीतर धर्मज्ञता का अन्तर्भाव हो ही जाता है तब उसे यह कहने का क्या कारण था कि “कोई नसार' के नव पदार्थों का साक्षात्कार करता है कि नहीं, इससे हमे प्रयोजन नही ? प्रकृत मे हमे यह देखना है कि उसने धर्म को जाना या नहीं। यदि उसने धर्म को जाना है तो हमारा काम चल जाता है।" बात यह है कि पहले कुमारिल ने यह स्वीकार कर लिया है कि "यदि कोई धर्मातिरिक्त अन्य सब पदार्थों को जानता है तो इसका कौन निराकरण करता है। हमारा तो कहना केवल इतना ही है कि पुरुष धर्म का ज्ञाता नही हो सकता।" धर्मकीति ने कुमारिल के इसी कधन का उत्तर दिया है। कुमारिल के सामने जहाँ वेद की प्रतिष्ठा का प्रश्न रहा है वहाँ धर्मकीर्ति के सामने पुरुष की प्रतिष्ठा का प्रश्न रहा है। एक बार एक आदमी ने अपने एक साथी से कहा, "आपमे और तो सब गुण है, किन्तु माप झूठ बहुत वोलते हो।' तो इसका उसने उत्तर दिया, "मुझमे योर गुण हो या न हो, किन्तु इतना मन है कि मैं झूठ कभी नहीं वोलता।' वम इसी प्रकार का यह कुमारिल और धर्मकीर्ति का सवाद है। कुमारिल चाहता है कि किसी-न-किसी प्रकार सर्वज्ञवादियो के तीर्थकर को अप्रमाण ठहराया जाय। इसके लिए वह प्रलोभन भी देता है। कहता है कि आपका पुरुष और सवको जानता है, इससे हमें क्या प्रापत्ति है। यहाँ कुमारिल पदार्थों के मूक्ष्म और न्यूल भेदो को भी भुला देता है। लेकिन धर्मकीर्ति कुमारिल के कहने की इम चतुराई को समझ लेता है इसलिए वह ऐसा उत्तर देता है, जिसका कोई प्रत्युत्तरही नहीं हो सकता। धर्मकीति के इस उत्तर के बाद उत्तर-प्रत्युत्तरो
'सर्व पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्ट तु पश्यतु ।
कोटतरयापरिक्षान तस्य न क्वोपयुज्यते ॥ प्रमाणवार्तिक २, ३३ 'धर्मज्ञत्वनिषेधस्तु केवलोऽत्रोपयुज्यते। सर्वमन्यद्विजानस्तु पुरुष केन वार्यते ॥ यह फारिका तत्त्वसाह पृष्ठ ८१७ में कुमारिल के नाम ते उद्धृत है।