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सर्वज्ञता के प्रतीत इतिहास की एक झलक
३५१ साधारणत गवर ऋपि का वास्तव्य काल ईसवी सन् २०० के लगभग माना जाता है । इमलिए इतना तो निश्चयपूर्वक ही कहा जा सकता है कि वेदो मे इस प्रकार की योग्यता ईमवी सन् २०० के लगभग मानी जाने लगी थी। पुरुप की मर्वज्ञता के निषेध के बीज भी तभी में बोए गए, यह भी इममे फलित होता है। मालूम होता है कि गवर ऋपि ने यह युक्ति मर्वनवादियो मे ली होगी, किन्तु यह वात निश्चयपूर्वक तो तव कही जा सकती है जब यह बतलाया जा सके कि पुरुप की मर्वजता की मान्यता इममे बहुत पुरानी है । अत पहले इसी का विचार किया जाता है।
दिगम्बर परम्परा मे पट्खण्डागम और कपायप्राभृत मूलश्रुत के अगभूत माने जाते है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुमार तो अगमाहित्य अब भी विद्यमान है। इस नाहित्य के देखने से मालूम होता है कि जैन परम्परा में 'सच्चे जाणई' मवची मान्यता बहुत पुरानी है।
यतिवृपभ प्राचार्य जो स्पप्टत ईमवी मन् पूर्व के है, कपायप्राभूत के चूर्णिसूत्रो में लिखते है
'तदो अणतकेवलणाणदसणवीरियजुत्तो जिणो केवली सचण्हो सम्वदरिसी भवदि सजोगिजिणो त्ति भण्णइ । असखेज्जगुणाए मेढीए पदेसग्ग णिज्जरमाणो विहरदि त्ति ।'
अर्थात्-"घाति चप्तुष्टय के क्षय होने पर अनन्त केवल ज्ञान, केवल दर्शन और वीर्य में युक्त हो कर केवली जिन मर्वज्ञ और मर्वदर्गी होते है जिन्हें मयोगी जिन कहते है। ये मयोगी जिन अमस्यात गुणित येणीस्प मे कर्मप्रदेशो की निर्जग करते हुए विहार करते है।"
पहले प्रकृति अनुयोगद्वार और स्थानाग सूत्र के जो उद्धरण दे पाये हैं, उनमे भी इमी वात की पुष्टि होती है । बौद्ध माहित्य में 'धम्मपद' मुत्तपिटक के अन्तर्गत ही है। इसके अरहन्तवर्ग मे वतलाया है'गतद्धिनो विसोकस्स विप्पमुत्तस्स सबधि । मब्बगन्यप्पहीणस्स परिलाहो न विज्जति ॥'
अर्थात्-"जिमका मार्ग समाप्त हो गया है, जो शोक रहित है, जो सर्वथा विमुक्त है, जो सर्वज्ञ है और जिमकी मभी ग्रन्थिया क्षीण हो गई, उसके लिये परिताप नहीं।"
इन प्रमाणो के आधार मे सर्वन की 'सब्वे जाणई' वाली मान्यता बहुत प्राचीन है, ऐमा मान लेने मे किसी प्रकार का सन्देह नहीं रहता।
उपनिपदी के जो दो एक उल्लेस हमे प्राप्त हुए है, उनके देखने से मालूम होता है कि पहले ब्राह्मण लोग आत्मा की उक्रान्ति, पग्लोक और पुनर्जन्म आदि विद्यालो से परिचित न थे। उन्हें यह विद्या क्षत्रियों में प्राप्त हुई है । छान्दोग्य उपनिपद में एक कया आई है जिसमे उक्त कथन की पुष्टि होती है। कथा इस प्रकार है
"किमी ममय' श्रमण के पुत्र श्वेतकेतु पाचालो की परिपद् में पहुंचे। वहाँ क्षत्रिय राजा प्रवाहण जैविलि ने उनसे जीव की उत्क्रान्ति, परलोकगति और जन्मान्तर के सवध में एक-के-बाद-एक पांच प्रश्न किये, किन्तु ग्वेतकेतु उन प्रश्नों में से एक का भी उत्तर न दे सके । इममे बहुत ही लज्जित हो कर श्वेतकेतु ने अपने पिता अरुण के पाम जाकर उनके इन पांची प्रश्नी का उत्तर मांगा। पिता ने कहा उन्हें तो हम भी नहीं जानते । तव वाप और बेटा दोनो ही राजा जैविलि के पास गये । जाकर श्वेतकेतु के पिता ने राजा मे कहा कि श्रापन मेरे लटके से जो प्रश्न किये ये उनका उत्तर दीजिये। गौतम की प्रार्थना मुनकर राजा चिन्तित हुए। उन्होने ऋपि से कुछ समय ठहरने के लिए कहा। फिर कहा-हे गौतम | आप हममे जो विद्या मीखना चाहते है वह विद्या आपमे पहले किमी ब्राह्मण को नही प्राप्त हुई है।"
वृहदारण्यक उपनिषद् के छठे अध्याय में भी इसी प्रकार का एक उरलेस पाया है । यथा'इयं विद्या' इत. पूर्व न कस्मिश्चित् ब्राह्मणे उवास । ता त्वह तुभ्य वक्ष्यामि ।'
'कर्मवाद और जन्मान्तर, पृ० १८६ . कर्मवाद और जन्मान्तर, पृष्ठ १८८