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जैन तत्त्वज्ञान
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परम्परा मे जीवनशोधन से सम्बन्ध रम्बने वाले मौलिक प्रश्न और उनके उत्तरी मे बिलकुल भी भेद नहीं है। कोई ईश्वर को माने या नहीं, कोई प्रकृतिगदी हो या कोई परमाणुवादी, कोई यात्मभेद स्वीकार करे या आत्मा का एकत्व स्वीकार करे, कोई आत्मा को व्यापक और नित्य माने या कोई उससे विपरीत माने, इसी प्रकार कोई यन-याग द्वारा भक्ति के ऊपर भार देता हो या कोई ब्रह्ममाक्षात्कार के ज्ञानमार्ग के ऊपर भार देना हो, कोई मध्यममार्ग स्वीकार करके अनगारधर्म और भिक्षाजीवन के ऊपर भार दे या कोई अधिक कठोर नियमो का अवलम्बन करके त्याग के ऊपर भार दे, परन्तु प्रत्येक परम्परा मे इतने प्रश्न एक समान हैं-दुख है या नहीं? यदि है तो उसका कारण क्या है ? उम कारण का नाश शक्य है ? यदि शक्य है तो वह किस प्रकार ? अन्तिम साध्य क्या होना चाहिए ? इन प्रश्नो के उत्तर भी प्रत्येक परम्परा मे एक ही है। चाहे गव्दभेद हो, सक्षेप या विस्तार हो, पर प्रत्येक का उत्तर यह है कि अविद्या और तृष्णा ये दुख के कारण है । इनका नाग सम्भव है। विद्या से और तृष्णाछेद के द्वारा दु ख के कारणो का नाश होते ही दुख अपने आप नष्ट हो जाता है। और यही जीवन का मुख्य साध्य है। आर्यदर्शनो की प्रत्येक परम्परा जीवनशोधन के मौलिक विचार के विषय में और उसके नियमो के विषय में विलकुल एकमत है । इसलिए यहाँ जनदर्शन के विषय में कुछ भी कहते समय मुख्यरूप से उसकी जीवनगोधन की मीमासा का ही मक्षेप में कथन करना अधिक प्रासगिक है।
जीवनशोधन की जैन-प्रक्रिया
जैनदर्शन कहता है कि आत्मा स्वाभाविक रीति मे शुद्ध और सच्चिदानन्दस्प है। इसमे जो अशुद्धि, विकार या दु खपता दृष्टिगोचर होती है वह अज्ञान और मोह के अनादि प्रवाह के कारण से है। ज्ञान को कम करने और विलकुल नष्ट करने के लिए तथा मोह का विलय करने के लिए जैनदर्शन एक ओर विवेकशक्ति को विकसित करने के लिए कहता है और दूसरी ओर वह रागद्वेप के मस्कारो को नष्ट करने के लिए कहता है । जैनदर्शन प्रात्मा को तीन भूमिकाओं में विभाजित करता है। जव अज्ञान और मोह के प्रवल प्रावल्य के कारण आत्मा वास्तविक तत्त्व का विचार न कर सके तथा सत्य और स्थायी सुख की दिशा में एक भी कदम उठाने की इच्छा न कर सके तव वह वहिरात्मा कहलाता है। यह जीव की प्रथम भूमिका हुई। यह भूमिका जव तक चलती रहती है तब तक पुनर्जन्म के चक्र के वन्द होने की कोई सम्भावना नहीं तथा लौकिक दृष्टि मे चाहे जितना विकास दिखाई देता हो फिर भी वास्तविक रीति से वह आत्मा अविकसित ही होता है।
जव विवेकशक्ति का प्रादुर्भाव होता है और जब रागद्वेष के सस्कारो का बल कम होने लगता है नव दूसरी भूमिका प्रारम्भ होती है। इसको जैनदर्शन अन्तरात्मा कहता है। यद्यपि इस भूमिका के समय देधारण के लिए उपयोगी सभी सामारिक प्रवृत्ति अल्प या अधिक अश में चलती रहती है, फिर भी विवेकशक्ति के विकास के प्रमाण में और रागद्वेष की मन्दता के प्रमाण मे यह प्रवृत्ति अनासक्ति वाली होती है। इस दूसरी भूमिका मे प्रवृत्ति होने पर भी उसमें अन्तर मे निवृत्ति का नत्त्व होता है। दूसरी भूमिका के कितने ही मोपानो का अतिक्रमण करने के वाद आत्मा परमात्मा की दशा को प्राप्त करता है। यह जीवनशोधन की अन्तिम और पूर्ण भूमिका है। जैनदर्शन कहता है कि इस भूमिका पर पहुंचने के वाद पुनर्जन्म का चक्र सदा के लिए विलकुल वन्द हो जाता है।
हम ऊपर के मक्षिप्त वर्णन से यह देख मकते है कि अविवेक (मिथ्यावृष्टि) और मोह (तृष्णा) ये दो ही ममार है अथवा ममार के कारण है। इसके विपरीत विवेक (सम्यग्दर्शन) और वीतरागत्व यही मोक्ष है अथवा मोक्ष का मार्ग है। यही जीवनशोधन की सक्षिप्त जैनमीमामा अनेक जैनान्यो मे अनेक रीति से, मक्षेप या विस्तार से, विभिन्न परिभाषामो में वर्णित है। और यही जीवनमीमासा वैदिक तथा वौद्धदर्शन में जगह-जगह अक्षरग दृष्टिगोचर होती है।