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________________ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ कुछ विशेष तुलना ऊपर तत्त्वज्ञान की मौलिक जैन विचारसरणी और आध्यात्मिक विकासक्रम की जैन विचारसरणी का वहुत ही सक्षेप में निर्देश किया है। इस सक्षिप्त लेख में उसके प्रति विस्तार को स्थान नही, फिर भी इसी विचार को अधिक स्पष्ट करने के लिए यहाँ दूसरे भारतीय दर्शनों के विचारो के साथ तुलना करना योग्य है । ३०० (क) जैनदर्शन जगत् को मायावादी की तरह केवल भास या केवल काल्पनिक नही मानता है परन्तु वह जगन् को सत्य मानता हूँ। फिर भी जैनदर्शन-समत सत् चार्वाक की तरह केवल जड अर्थात् सहज चैतन्यरहित नही है । इसी प्रकार जैनदर्शन समत सत् तत्त्व शाकरवेदान्तानुसार केवल चैतन्य मात्र भी नही है, परन्तु जिस प्रकार साख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्वमीमासा और बौद्धदर्शन सत् तत्त्व को बिलकुल स्वतन्त्र तथा परस्पर भिन्न ऐसे जड श्रौर चेतन दो भागो में विभाजित कर डालते है, उसी प्रकार जैनदर्शन भी सत् तत्त्व की अनादिसिद्ध जड तथा चेतन ऐसी दो प्रकृति स्वीकार करता है जो कि देश और काल के प्रवाह में साथ रहने पर भी मूल में विलकुल स्वतन्त्र है । जिस प्रकार न्याय, वैशेपिक और योगदर्शन आदि यह स्वीकार करते है कि इस जगत का विशिष्ट कार्य स्वरूप चाहे जड र चेतन इन दो पदार्थों से बनता हो फिर भी इस कार्य के पीछे किसी अनादिसिद्ध, समर्थ, चेतनशक्ति का हाथ है, इम ईश्वरीय हाथ के सिवाय ऐसे अद्भुत कार्य का सम्भव नही हो सकता है । जैनदर्शन इस प्रकार से नही मानता है । वह प्राचीन साख्य, पूर्व मीमासा और बौद्ध आदि की तरह मानता है कि जड और चेतन ये दो सत् प्रवाह अपने आप किमी तृतीय विशिष्ट शक्ति के हस्तक्षेप के सिवाय ही चलते रहते हैं । इसलिए वह इस जगत् की उत्पत्ति या व्यवस्था के लिए ईश्वर जैसी स्वतन्त्र श्रनादिसिद्ध व्यक्ति स्वीकार नही करता है । यद्यपि जैनदर्शन न्याय, वैशेषिक Satara की तरह सत् तत्त्व को अनादिसिद्ध अनन्त व्यक्तिरूप स्वीकार करता है और साख्य की तरह एक व्यक्तिरूप नही स्वीकार करना, फिर भी वह साख्य के प्रकृतिगामी सहज परिणामवाद को अनन्त परमाणु नामक जड सत् तत्त्वो में स्थान देता है । इस प्रकार जैन मान्यतानुसार जगत् का परिवर्तन प्रवाह अपने श्राप ही चलता रहता है। फिर भी जैनदर्शन इतना तो स्पष्ट कहता है कि विश्व की जो-जो घटनाएँ किसी की बुद्धि और प्रयत्न की प्रभारी होती है उन घटनाओ के पीछे ईश्वर का नही, परन्तु उन घटनाओ के परिणाम में भागीदार होने वाले ससारी जीव का हाथ रहता है, अर्थात् वैसी घटनाएँ जान में या अनजान में किसी न किसी ससारी जीव की वृद्धि और प्रयत्न की आभारी होती है । इस सम्वन्ध मे प्राचीन साख्य और बौद्धदर्शन, जैनदर्शन जैसे ही विचार रखते है । वेदान्तदर्शन की तरह जैनदर्शन सचेतन तत्त्व को एक या अखड नही मानता है, परन्तु साख्य, योग, न्याय, वैशेषिक तथा बौद्ध श्रादि की तरह वह सचेतन तत्त्व अनेक व्यक्तिरूप मानता है। फिर भी इन दर्शनो के साथ जैनदर्शन का थोडा मतभेद है । और वह यह है कि जैनदर्शन की मान्यतानुसार सचेतन तत्त्व वौद्ध मान्यता की तरह केवल परिवर्तनप्रवाह नही है तथा साख्य, न्याय आदि की तरह केवल कूटस्थ भी नही है । किन्तु जैनदर्शन कहता है कि मूल में सचेतनतत्त्व ध्रुव अर्थात् श्रनादि अनन्त होने पर भी वह देश काल का असर धारण किये बिना नही रह सकता । इसलिए जैन मतानुसार जीव भी जड की तरह परिणामी नित्य है । जैनदर्शन ईश्वर जैमी किसी व्यक्ति को बिलकुल स्वतन्त्ररूप से नही मानता है फिर भी वह ईश्वर के समग्र गुणो को जीवमात्र में स्वीकार करता है । इसलिए जैनदर्शनानुसार प्रत्येक जीव मे ईश्वरत्व की शक्ति है। चाहे वह शक्ति आवरण से दबी हुई हो, परन्तु यदि जीव योग्य दिशा में प्रयत्न करे तो वह अपने में रही हुई ईश्वरीय शक्ति का पूर्णरूप से विकास करके स्वय ही ईश्वर बनता है । इस प्रकार जैन मान्यतानुसार ईश्वरतत्त्व को भिन्न स्थान नही होने पर भी वह ईश्वरत्व की मान्यता रखता है श्रोर उसकी उपासना भी स्वीकार करता है। जो-जो जीवात्माएँ कर्मवासनाओ से पूर्णरूप से मुक्त हुए हैं वे सभी ममानभाव स ईश्वर है । उनका आदर्श सामने रख करके अपने में रही हुई पूर्ण शक्ति को प्रकट करना यह जैन
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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