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दादू और रहीम
प्राचार्य क्षितिमोहन सेन शास्त्री, एम० ए० भक्तो के बीच यह प्रसिद्ध है कि अकबर के विख्यात सहकारी अब्दुर रहीम खानखाना के साथ, जो कि एक महापडित, भक्त और कवि थे, दादू का परिचय हुआ था। रहीम जैसे विद्वान्, उत्साही और अनुरागी के लिए दाद सरीखे महापुरुष को देखने की इच्छा न होना ही आश्चर्य की बात है।
१५४४ ई० में दादू का जन्म हुआ था और १५५६ ई० मे रहीम का । इस हिसाव से रहीम, दादू से बारह वर्ष छोटे थे। कोई-कोई ऐसा भी कहते हैं कि रहीम का जन्म १५५३ ई० मे हुआ था। १५८६ ई० में जव प्रकवर के साथ दादू का मिलन हुआ, उस समय नाना काज मे व्यस्त रहने के कारण रहीम, दादू से वातचीत न कर सके। सम्भवत अन्य सभी लोगो के भीडभडक्के मे इस महापुरुष को देखने की इच्छा भी रहीम की न रही हो । जो हो, इसके कुछ समय के उपरान्त ही दादू के एकान्त पाश्रम में जाकर रहीम ने दादू का दर्शन किया और उनसे बातचीत की। भक्त लोगो का कहना है कि रहीम के कई-एक हिन्दी दोहो मे इस साक्षात्कार की छाप रह गई है।
दादू के निकट रहीम के जाने पर परब्रह्म के सम्बन्ध मे बातचीत चली। दादू ने कहा, "जो ज्ञान बुद्धि के लिए अगम्य है, उनकी वात वाक्य में कैसे प्रकट की जा सकती है ? यदि कोई प्रेम और आनन्द से उनकी उपलब्धि भी करे तो उसे प्रकट करने के लिए उसके पास भाषा कहाँ है ?" इसी प्रकार के भाव कवीर और दादू की वाणी मे अनेक स्थानो पर पाये जाते है।
__ मौन गहे ते बावरे बोले खरे अयान । (साच अग, १०६) ___अर्थात्-"जो मौन रहता है, वह पागल है, और जो बोलता है वह विलकुल प्रज्ञान है।" वही रहीम के दोहे में भी पाया जाता है
रहिमन वात अगम्य को कहन सुनन की नाहिं।
जे जानत ते कहत नहिं कहत ते जानत नाहिं ॥ । अर्थात्- "हे रहीम, उस अगम्य की वात न कही जाती है और न सुनी जाती है। जो जानते है वे कहते नही और जो कहते है वे जानते नहीं।"
प्रसग के क्रम मे दादू ने कहा, "उनको विषय अर्थात् पर मानकर देखने से नहीं चलेगा, उनको अपना बनाकर देखना होगा। यदि मैं और वे एकात्म न हो, एक दूसरे से भिन्न रहें तो इस विश्व-ब्रह्माण्ड मे ऐसा कोई स्थान नही जो हमी दोनो जनो को अपने मे रख सके।" इसीलिए दादू ने कहा-"जहाँ भगवान् है, वहां हमारा (और कोई स्वतन्त्र) स्थान नहीं । जहाँ हम है वहाँ उनकी जगह नहीं। दादू कहते है कि वह मन्दिर सकीर्ण है, दो जन होने से ही वहाँ और स्थान नहीं रहता।"
जहाँ राम तह में नहीं, मै तह नाहीं राम ।
दादू महल बारीक है द्वै को नाही ठाम ॥ (परचा अग, ४४) "वह मन्दिर सूक्ष्म और सकीर्ण है।" मिहीं महल बारीक है। (परचा अग, ४१) दादू कहते है
"हे दादू, मेरे हृदय में हरि वास करते है, वहाँ और दूसरा कोई नही । वहाँ और दूसरे किसी के लिए स्थान ही नही है, दूसरे को वहां रक्खू तो कहाँ रक्खू ?"