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- प्रेमी जी स्टेशन पर न तो गाडोदिया जी दिखाई दिये और न उनका कोई आदमी। (उन्हें मेरा पत्र ही मेरे बम्बई पहुंचने के सात-आठ घटे वाद मिला था।) हाँ, प्रेमीजी मुझे अवश्य इवर-उधर ढूंढते हुए दिखाई पडे । सवेरे छ बजे का समय। जाडे का दिन । आकाश में कुछ वादल और कुहरा-सा छाया हुआ। ऐसे ममय में मै स्वप्न में भी आशा नहीं करता था कि प्रेमीजी मुझे स्टेशन पर दिखाई देंगे। पर वे मुझे जिस तत्परता से ढूंढ रहे थे, उसी का मुझ पर यथेष्ट प्रभाव पड़ा। उस दिन से अाज तक मेरा और उनका भाइयो का-सा व्यवहार चला आता है।
प्रेमीजी जवरदस्ती मुझे अपने घर ले गये। रास्ते में ही जो वातें हुईं, उनसे मैने समझ लिया कि जवलपुर में प्रेमीजी को पहचानने में मुझसे वडी भूल हुई थी। प्रेमीजी को मै जितना सज्जन और सहृदय समझता था, उससे वे कही अधिक वढकर निकले । पछताते हुए मैने अपनी भूल उन पर प्रकट की। सुनकर वोले, “वर्मा जी, मै सीवासादा आदमी हूँ। आजकल की व्यवहार-चातुरी मुझमें नहीं है। इसलिए कोई कुछ समझ लेता है, कोई कुछ।" उन्हीं 'कोडयो में मैं भी एक 'कोई' था। पर आज उस वर्ग से निकल कर और प्रेमीजी के अन्तस्तल तक पहुंचकर मैने उसका पूरा-पूरा निरीक्षण किया। साथ ही यह प्रतिज्ञा की कि आगे से मै किसी के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में इतनी जल्दी कोई वारणा न बना लिया करेगा। यह पहली शिक्षा थी, जो प्रेमीजी से पहली भेंट में मुझे प्राप्त हुई। पर मै नही जानता था कि अभी मुझे इनसे और भी बहुत-सी वातें सीखने को मिलेंगी।
प्रेमीजी के घर पहुंचते ही मै अवाक् रह गया। बहुत ही छोटा-सा अवेरा घर। मैं समझता था कि प्रेमीजी ने प्रकाशन कार्य से पचीस-पचास हजार रुपये कमाये है। वे कुछ तो ठाठ-बाट से रहते होगे, पर वहां ठाठ-बाट का नाम नही था । घर की सभी बातें बहुत ही मावारण थी। पर मैने तुरन्त अपने आपको सँभाला। मैने सोचा कि यहाँ मी प्रेमीजी का वहीं सीवापन अपना परिचय दे रहा है, जिसकी चर्चा उन्होने स्टेशन से आते समय की थी। और बात भी वही थी। यो प्रेमीजी मितव्ययी तो है ही, पर इससे भी बढकर वे सरल और नितान्त सात्विक वृत्ति के पुरुष है। वे अपनी आवश्यकताएँ बहुत ही कम करके इस सिद्धान्त का उज्ज्वल उदाहरण हमारे सामने रखते है कि जिसकी आवश्यकताएँ जितनी ही कम हो, वह ईश्वर के उतना ही समीप होता है।
प्रेमीजी का घर देखने में तो बहुत ही साधारण था, पर मुझे सुख मिला स्वर्ग का-सा। उनकी स्वर्गीय साध्वी पत्नी का नितान्त निश्छल और निष्कपट स्वागत-सत्कार बहुत अधिक प्रभाव डालता था। बालक हेमचन्द्र, जिसको दुःखद स्मृति ने बहुतो के हृदय में स्थायी रूप से घर कर लिया है, उस समय दस-यारह वर्ष का था। उसकी सरलता और सहृदयता तथा प्रेमपूर्ण व्यवहार मानो प्रेमीजी के इन सब गुणो को भी मात करने वाला था। आठही दम घटो में मुझे वहां घर से बढकर सुख और आनन्द मिलने लगा। पर उस सुख का मै अधिक उपभोग न कर सका। सन्ध्या होते ही गाडोदिया जी मोटर लेकर आ पहुंचे और मुझे जवरदस्ती अपने निवास स्थान पर (दादर) उठा ले गये। पर अपने प्राय एक मास के वम्बई प्रवास में प्रेमीजी के आकर्षक प्रेम के कारण मेरा आधा समय हीरावान में ही बीता।
- इसके बाद कई वार वम्बई जाने का अवसर मिला है और हर वार में प्रेमीजी के यहाँ ही ठहरा हूँ। मै ही क्यो, प्रेमीजी के प्राय सभी मित्र और अधिकाश हिन्दी-प्रेमी उन्ही के यहाँ ठहरते है। जो लोग कभी किमी कारण मे दूसरी जगह जा ठहरते है, उन्हें भी प्रेमीजी विवश करके अपने यहाँ ले आते है। यह प्रेमीजी का स्वाभाविक गुण है। इस सोने में एक सुगन्ध भी प्रान मिलती थी। वह सुगन्ध थी उनके वाल-वच्चो का स्नेहपूर्ण और घर का-सा व्यवहार । पर हाय | हेमचन्द्र के चले जाने मे वह सुगन्व ही नही उड गई, बल्कि मोना भी गरम राख की बडी तह के नीचे दव गया।