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सिद्धसेन दिवाकरकृत वेदवादद्वात्रिशिका
यह स्पष्ट विरोध है, क्योकि परमात्मा का स्पर्श तो चाहे जिसको जागृत करता है इसके विपरीत वह मनुष्य को प्रवृत्तिक्षेत्र से दूर करके निद्रावश और भानरहित कैसे बनावेगा । यदि वह ऐसा करता है तो फिर परमात्मस्पर्श के स्थान पर उसको चोरो के द्वारा प्रयोजित निद्रामत्र का स्पर्श ही कहना चाहिएं ? इस प्रापञ्चिक विरोध का परिहार आध्यात्मिक दृष्टि के विचार में है । आध्यात्मिक दृष्टि यह कहती है कि जव मनुष्य और उसकी इन्द्रियाँ अपने अपने प्रवृत्तिक्षेत्र में रममाण होते है तभी वह तात्त्विक दृष्टि से निद्रावग होते है । हृदय में परमात्मा का स्पदन होते ही मनुष्य और इन्द्रियो की यह दगा चली जाती है और वह प्रवृत्तिक्षेत्र के स्थूलरस की निद्रा छोड कर किसी नव जागरण का अनुभव करते है। ऐसे जागरण का ही परमात्मस्पर्शजनित निद्रारूप से यहाँ वर्णन किया गया है । और जव ऐसी निद्रा से मनुष्य और उसकी इन्द्रियाँ जागते है तव वे पीछे अपने अपने विषय की ओर झुक कर भोगाभिमुख वनते है ।
उक्त निद्रा और जागरण समझने के लिए 'या निशा सर्वभूताना तस्या जार्गात सयमी' ( गीता २६९) गीता का यह श्लोक और उसका प्राचार्य हेमचन्द्र के द्वारा काव्यानुशासन मे किया हुआ विवरण ( पृ० ७०) उपयोगी है ।
कवि परमात्मा की कामधेनु के रूप से कल्पना करके और उसके चारो ओर फैली हुई विभूतियो को स्तन' का रूपक देकर कहता है कि वे स्वय भरती तो है, किन्तु अपने आप पाप को नही दूझती है । यहाँ यह विरोध है कि परमात्मा की विभूतियो को यदि स्वय भरने दिया जाय अर्थात् उनको स्वयं अपना अपना काम करने दिया जाय तो वे सदैव भला करती है, परन्तु यदि उनको प्रयत्न से दुहना शुरू करो वा उन्हें प्रयत्न से निचोडना शुरू करो तो उसमें से पाप ही भरता है बुराई ही प्रकट होती है । यह स्पष्ट विरोध है । कामधेनु के स्तनो को हाथ से निचोत्रो या उनको दूध स्वय झरने दो तो भी उनमें से एक समान ही दूध भरता है । जव कि यहाँ पर तो प्रयत्न से निचोडने पर बुराई प्रकट होती है ऐसा कहा गया है ।
इस विरोध का परिहार इस प्रकार हो सकता है कि प्राविभौतिक, प्राधिदैविक और अध्यात्मिक सभी परमात्मा की विभूतियो को जब मनुष्य अपने ग्राहकारिक प्रयत्न से भोगदृष्टि से निचोता है अर्थात् उनके साहजिक प्रवाह को अपने लोभ से कुठित करता है तव वह विभूतियो में से कल्याण सिद्ध करने के वदले अकल्याण सिद्ध है । यदि कोई सूर्य के साहजिक प्रकाश प्रवाह को रोकने के लिए प्रयत्न करता है या वरसते मेघ को रोकता है तो उसमे उसका और दूसरो का अहित ही होने वाला है । कवि का तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि जगत् में जो-जो विभूतिरूप है उसमे से प्रयत्न के बिना ही सबका कल्याण सिद्ध होता है । परन्तु यदि इन विभूतियो को निचोना शुरू करो तो उनमें से अकल्याण ही प्रकट होता है । कामधेनु के स्तन अपने श्राप दूध की वर्षा करते हैं परन्तु अधिक लालच से उनको निचोना शुरू करो तो उनमें से रुधिर ही भरता है । यही न्याय परमात्मा की सहज विभूतियो को भी लागू पडता है।
तमेवाश्वत्थमृषयो वामनन्ति हिरण्मय व्यस्तसहस्रशीर्षम्
मन शय शतशाखप्रशाख यस्मिन् वीज विश्वमोत प्रजानाम् ॥१६॥
श्रयं -- जिसमें प्रजानों का सपूर्ण बीज रहा हुआ है उसी का ऋषि लोग श्रश्वत्थ वृक्ष रूप से वर्णन करते है, उसी का विस्तृत हजार मस्तकधारी ब्रह्मारूप से वर्णन करते है और उसी का सैकडो शाखा और प्रशाखा वाले कामरूप से वर्णन करते हैं ।
१ मूल में रश्मि शब्द है उसका सीधा अर्थ स्तन नहीं है परन्तु यहाँ प्रसग देखकर किरण की समानता की कल्पना करके वह श्रर्थ किया गया है ।
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