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प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ भावार्थ-सास्यपरम्परा के अनुसार सृष्टिमात्र या प्राणीवर्ग का जन्मवीज अव्यक्त प्रकृति में समाविष्ट है जव कि ब्रह्मवादी परम्परानुसार यह जननवीजशक्ति परब्रह्म परमेश्वर में निहित है। यहां कवि ईश्वरवादी परम्परा को लक्ष्य करके परमात्मा का ही समग्न प्राणीवर्ग की जननशक्ति के आधाररूप से निर्देश करता है। और साथ-साथ में वह कहता है कि ऋषि लोग इसी परमात्मा का वेद, उपनिषद्, महाभारत, गीता आदि में अश्वत्य रूप से, हिरण्यगर्भ रूप से तथा कामरूप से वर्णन करते है।
ऋग्वेद के सूक्त में (१२४७) वरुण के वृक्ष का वर्णन है । अथर्ववेद में (५४३) अश्वत्यवृक्ष का वर्णन है, कठ में (६१) और गीता में (१५ १) इसी अश्वत्यवृक्ष का 'ऊर्ध्वमूलमध शाख' इत्यादि स्प से सविशेष वर्णन है और गीता में तो कठ से भी अधिक 'अधश्चोर्ध्व प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवाला' (१५२) इत्यादि रूप से वर्णन है। श्वेताश्वतर (६६) अश्वत्थ नाम नही दे करके केवल वृक्ष शब्द से इसका निर्देश करता है। ऋषियो ने दृश्यससार के विस्तार का ही इस वक्ष या अश्वत्य के रूपक मे वर्णन किया है। कवि उस रुपक को उद्देश करके ही कहता है कि ऋषि लोग परमात्मा का ही अश्वत्यरूप से वर्णन करते है। यहाँ कवि ससार और परमात्मा का अभेद वर्णन करता है। जव ब्रह्म ही जगत का कारण माना गया तब ब्रह्मवादियो ने इस ब्रह्म का ही अश्वत्यरूप से वर्णन किया।
पुरुषसूक्त मे (१०-६०-१) सहस्रशीर्ष रूप से पुरुष का वर्णन है। वह पुरुप अर्थात् लोकपुरुष या ब्रह्मा, प्रजापति अथवा हिरण्यगर्भ । इसी ऋपिकृत वर्णन को लक्ष्य में रख कर कवि कहता है कि वही हिरण्यगर्भ परमात्मा है। प्राचीनकाल में प्रजा का मूल हिरण्यगर्भ या ब्रह्मा में माना जाता था। ब्रह्मवाद की प्रतिष्ठा के समय में यह मूल परमात्मा मे माना गया। कवि इस प्राचीन और नवीन विचारधारा का एकीकरण करके कहता है कि हिरण्यगर्भ ही परमात्मा है।
काम-तृष्णा-सकल्प या वासना यही ससार का दोज है। उसमे से ही सृष्टि की छोटी बडी सैकडो शाखाएँ प्रवृत्त होती है। इस वस्तु का 'सोऽकामयत वहु स्या प्रजायेयेति' (०२-६) इत्यादि स्प से ऋषियो ने वर्णन किया है। उसको लक्ष्य करके कवि कहता है कि यह काम दूसरा और कोई नहीं है परन्तु परमात्मा ही है। 'कामोऽस्मि भरतर्षभ' (गी० ७-११) की तरह काम और परमात्मा का अभेद दिखलाने में कवि का तात्पर्य इतना ही है कि सबके प्रभवरूप से जो जो माना जाता है वह परमात्मा ही है। इस प्रकार प्राचीन ऋपियो के द्वारा नाना रूप से गाई हुई महिमा परमात्मा की ही है, ऐसा कवि सूचित करता है।
स गीयते वीयते चार्ध्वरेषु मन्त्रान्तरात्मा ऋग्यजु सामशाख ।
अध शयो विततागो गुहाध्यक्ष स विश्वयोनि पुरुषो नैकवर्ण ॥१७॥ अर्थ-ऋग्, यजु और सामरूप शाखावाला ऐसा मत्रों का अन्तरात्मा ही यज्ञो में गाया जाता है और स्तुतिपात्र बनता है । गुहा का अध्यक्ष अघ शायी और विस्तृताग ऐसा वही अनेकवर्ण विश्वयोनि पुरुष है ।
भावार्थ-यहां कर्मकाण्ड में प्रयुक्त मन्त्री और विधिमओ के हार्दरूप में तथा ज्ञानकाण्ड के चिन्तन में सिद्ध हुए आध्यात्मिक तत्त्वरूप मे परमात्मा का एकीकरण किया गया है। यज्ञो में वैदिक मन्त्र विधिपूर्वक उच्चरित होते थे और विभिन्न देवो की स्तुति द्वारा प्रार्थना होती थी। स्तुति किये जाने वाले इन अनेक देवो मे से एक देव का विचार फलित होता गया तव ऐसा माना जाने लगा कि सभी मन्त्र फिर वे ऋग्वेद, यजुर्वेद या सामवेद रूप में विभक्त हुए हो और उनकी भिन्न-भिन्न शाखाएँ पडी हो फिर भी उनका परमार्थ या उनमें रहा हा अन्तर्गत सार तत्त्व तो एक ही है और वही अनेक यज्ञो में गाया जाता है तथा उसीकी विनय की जाती है।
कर्मकाण्ड के वाद की दूसरी भूमिका ज्ञानकाण्ड की है। उसमें तत्त्वचिंतक और सन्त मुख्यरूप से जगत् के मूलतत्त्व के पीछे पडे हुए थे। इसके परिणाम स्वरूप उनको एक ऐसा आध्यात्मिक तत्त्व प्राप्त हुआ जिसको उन्होने