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प्रेमी-अभिनवन-पथ इम पच म सनिदिष्ट भाव श्वेताश्वतर के 'ततो यदुत्तरतर तदरुपमनामयम् । त एतद्विदुरमृतास्ते भवन्त्यथेतरे दुखमेवापियन्ति ।' (३-१०) मन्त्र में स्पष्ट है।
विद्याविद्ये यत्र नो सभवेते यन्नासन्न नो दवीयो न गम्यम् ।
यस्मिन्मृत्युर्नेहते नो तु काम ' स सोऽक्षर परम ब्रह्म वेद्यम् ॥१३॥ अर्य-जिसमें विद्या और प्रविद्या का सभव नहीं है, जो न समीप, न दूरतर और न गम्य है, जिसमें न तो मृत्यु प्रवृत्त होता है और न काम प्रवृत्त होता है वह और वही अक्षर-अविनाशी है और ज्ञेय ऐसा परब्रह्म है।
___ भावार्य कवि ने यहाँ परमात्मा के निर्गुण स्वरूप का वर्णन किया है । इसीलिए वह अविद्या अर्थात् कर्ममार्ग और विद्या अर्थान् आत्मलक्षी शास्त्र इन दोनो के सभव से परमात्मा को पर कहता है। परमात्मा न तो दूर है
और न आसन्न यह वर्णन ईशावास्य के 'तदेजति तन्नेजति तद्रे तद्वन्तिके' (५) इस वर्णन की याद दिलाता है। प्रस्तुत पद्य मे श्वेताश्वतर के 'T अक्षरे ब्रह्मपरे त्वनन्ते विद्याविद्ये निहिते यत्र गूढ । क्षर त्वविद्या ह्यमृत तु विद्या विद्याविद्ये ईशते यस्तु सोऽन्य ।' (५ १) इस मत्र का भाव रममाण हो रहा है।
ओतप्रोता पशवो येन सर्वे ओत प्रोत पशुभिश्चैष सर्वे ।
सर्वे चेमे पशवस्तस्य होम्य तेषा चायमीश्वर सवरेण्य ॥१४॥ अर्य-जिसके द्वारा ये सब पशु-जीवात्माएँ श्रोतप्रोत है और यह स्वय सभी पशुओं--जीवात्मानो द्वारा प्रोत-प्रोत है । ये सभी पशु उसका हव्य है और इन सभी पशुप्रो के लिए यह वरने योग्य ईश्वर है ।
भावार्थ-कवि यहाँ पाशुपत परम्परा का अनुसरण करके 'पशु' पद का जीवात्मा के अर्थ में प्रयोग करता है और उस जीवात्मापरमात्मा के सम्बन्ध को यहाँ आलकारिक रीति से व्यक्त करता है। कवि जीवात्मा और परमात्मा को एक दूसरे से ओतप्रोत कह करके उन दोनो के बीच मे अभेद सम्बन्ध दिखलाता है और वह अभेद विशिष्टाद्वत कोटि का हो ऐसा रूपक से प्रतीत होता है।
यज्ञ मे पशु होमे जाते थे इसलिए वे उद्दिष्ट देवता के होम्य-हव्य द्रव्य कहलाते थे और वह उद्दिष्ट देवताहोम्य पशुप्रो का आराध्य माना जाता है। इस वस्तु को कवि ने जीवात्मा और परमात्मा के बीच का आध्यात्मिक सम्बन्ध स्पष्ट करते समय रूपक में कहा है कि जीवात्माएँ परमात्मा के होम्य है अर्थात् परमात्मभाव को प्राप्त करने के ध्येय रखने वाले जीवात्मानो को अपने आपका-जीवभाव का बलिदान करना ही चाहिए।
तस्यैवैता रश्मय कामधेनोर्या पाप्मानमदुहान क्षरन्ति ।
येनाध्याता पच जना स्वपन्ति प्रोबुद्धास्ते स्व परिवर्तमाना ॥१५॥ अर्य-जिसके द्वारा प्राध्यात-जिसके सकल्प के विषय बने हुए पचजन--निषाद और चार वर्ण मिल कर पांच जन या पांच इन्द्रियां सोती है और जिसके द्वारा उद्बोध प्राप्त करके वे पांच जन स्वय अपने प्रति पुन प्रवृत्त होते है। उसी परमात्मा रूप कामधेनु को ये रश्मियां है जो अपने पाप पाप को नहीं दूझती हुई झरती है।
भावार्थ-यहाँ कवि ने दो विरोधाभासो द्वारा चमत्कारिक रीति से परमात्मा की विभूति का वर्णन किया है। वह कहता है कि परमात्मा की अभिमुखता रूप प्राध्यान का स्पर्श होते ही मनुष्यमात्र तथा इन्द्रियाँ स्वप्नवश बनती है अर्थात् वे परमात्मस्पर्शरूप निद्रामत्र के प्रभाव से भान भूल कर निद्रावश बनती है और जब वे जगती है तब वे अपने कार्यप्रदेश के प्रति पुन फिरती है।
'नोतुकामा-मु०