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फोर्ट विलियम कॉलेज और विलियम प्राइस
११५ "हमारा विश्वास है कि बंगला और उडिया अपने मूल उद्गम के अधिक समीप है। किन्तु खडीबोली, ठेठ हिन्दी, हिन्दुई आदि विभिन्न नामो से प्रचलित 'व्रजभाखा' का सामान्यतः समस्त भारतवर्ष में प्रचार है--विशेष रूप से जयपुर, उदयपुर और कोटा की राजपूत जातियो में। इसके अतिरिक्त यह उस श्रेणी के सब हिन्दुओ की भाषा है जहाँ से हमारी तथा अन्य देशी सेनाओ के सैनिक पाते है।"
___ कॉलेज कौंसिल ने सपरिषद् गवर्नर-जनरल से प्रार्थना की कि हिन्दुस्तानी भाषा के स्थान पर फारसी के अतिरिक्त बंगला अथवा 'व्रजभाखा' (जिसे ठेठ हिन्दी और हिन्दुई भी कहा जाता था) के पठन-पाठन के लिए कॉलेज के विधान में आवश्यक परिवर्तन किये जायें । सरकारी मन्त्री लशिंगटन ने ३० सितम्बर, १८२४ ई० के पत्र द्वारा गवर्नर-जनरल की स्वीकृति भेज दी। इस पत्र के अनुसार कौंसिल ने कॉलेज के विधान का नवीन-सातवाँ
-परिच्छेद गवर्नर-जनरल के सम्मुख प्रस्तुत किया और साथ ही हर्टफोर्ड मे विद्यार्थियो को नागरी लिपि और हिन्दी तथा बंगला की शिक्षा देने के सम्बन्ध में कोर्ट को पत्र लिखने की प्रार्थना की। २८ अक्तूबर, १८२४ ई० को गवर्नरजनरल ने कॉलेज के नव-विधान पर अपनी स्वीकृति दे दी और कोर्ट को पत्र लिखने का वचन दिया।
कॉलेज कौसिल ने नव-विधान के साथ विलियम प्राइस का लिखा एक पत्र भी भेजा था, जिसमें उन्होने अपने भापा-सम्वन्धी विचार प्रकट किये है । उनके और गिलक्राइस्ट के विचारोमें स्पष्ट अन्तर है। विलियम प्राइस का कहना है
"उत्तरी प्रान्तों की भाषाओ को आपस में एक दूसरी से भिन्न समझी जाने और एक ही मूल रुप के विभिन्न रूप न समझे जाने के कारण उनके सम्बन्ध में बडी उलझन पैदा हो गई है। उन सब का विन्यास एक-सा है, यद्यपि उनमें कभी-कभी शब्द-वैभिन्य मिल जायगा।
"यदि यह मान लिया जाय कि गगा की घाटी के हिन्दुस्तान की वोलचाल की भाषा और संस्कृत के सम्बन्ध पर विचार करने का समय अव नहीं रहा, तो आधुनिक भाषाओं का स्वतन्त्र व्याकरण कव वना ? आधुनिक भाषाओं के स्वतन्त्र व्याकरण के कारण सस्कृत और हिन्दी के विभिन्न रूपों के मुख्य-मुख्य भेद है। यद्यपि कुछ शब्दो के सन्तोषजनक सस्कृत रूप ज्ञात नहीं किये जा सकते, तो भी ऐसे शब्दो की संख्या बहुत कम है। अधिक अध्ययन करने पर ऐसे शब्दो की संख्या और भी कम रह जायगी। इतना तो निस्सन्देह है, किन्तु सहायक क्रिया होना' संस्कृत धातु 'भू' से निकली है, यह मानना कठिन है।
"साथ ही ऐसे उदाहरण भी मिलते है कि क्रिया सस्कृत है, किन्तु सामान्य रूप को छोड कर उसकी विभक्तियाँ सस्कृत से नहीं मिलती। क्रियाओ के रूप और कारक-चिन्ह भी सामान्यत. बिलकुल अजीव है। वर्तमान काल और भूत-कृदन्त के साथ सहायक क्रिया का प्रयोग और पर-सर्ग लगा कर सज्ञानों के काल वनाना सस्कृत भाषा के सिद्धान्तो के विरुद्ध है। मूल रूप चाहे जो कुछ रहा हो, अव एक स्वतन्त्र हिन्दी व्याकरण है जो एक ओर तो अपने प्रदेश की मूल भाषा के व्याकरण से भिन्न है और दूसरी ओर सस्कृत से निकली भाषाओ, जैसे, बंगला और मराठी, से भिन्न है। इसलिए उस भाषा का स्वतन्त्र अस्तित्व मानने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती, जिसे हम सरलता-पूर्वक 'हिन्दी' नाम से पुकार सकते है, यद्यपि हिन्दुई-अपभ्रश हिन्दवी-शब्द अधिक उपयुक्त होता।
___ "विदेशी शब्दो के प्रचार ने हिन्दी का कुछ ऐसा रूप-परिवर्तन कर दिया है कि उसकी कुछ बोलियां एक-दूसरी से विलकुल भिन्न प्रतीत होती है। उर्दू के बडे-बड़े विद्वान् तो 'व्रजभाखा' का एक वाक्य भी नहीं पढ़ सकते । पण्डित या मुंशी और मुसलमान शहजादा या हिन्दू जमींदार के पारस्परिक सम्पर्क से बोलियां आपस में और घुल-मिल गई
'प्रोसीडिंग्ज प्राव दि कॉलेज ऑव फोर्ट विलियम, १५ दिसम्बर, १८२४, होम डिपार्टमेंट, मिसलेनियस, जिल्द ६, पृ० ४६६-४६७, इम्पीरियल रेकॉर्ड्स डिपार्टमेंट, नई दिल्ली।।
वही, पृ० ५०१-५०३