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जैन साहित्य में प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री
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प्राचीन हिन्दी को क्रमवर्ती रूपान्तर का दिग्दर्शन कराया है । अपभ्रंश प्राकृत के निम्नलिखित छन्दो को देखिये । इन्हें कौन हिन्दी-सा नही कहेगा
'देखिचि रयणमजूस विद्दाणउ । विभणऊ
कामसरेहि प्रयाणउ ॥ तालू विल्लि लग्ग मण सलइ । जिम सर सुवई मछऊ विलइ ॥'
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X 'जिम सूर ण भूलइ हथियारू । जिणयत्तु तेम जलि णमोयारु ॥' X
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'तुम्ह कहहु मज्भु सिरिप्पाल पुत्तु । तउ लाख दामु दइहउं तेणि सुणि पहुत्तउ राय हरकारु । भीतरि गय पुछवि X X 'हमारउ णरइव कम्बणु चिज्जु । घोवी चमार घर करहि खर- कुकुर - सूस्हग सहि मासु । हमि डोमं भढ कहिजहिय इसी के अनुरूप हिन्दी के कितने ही 'महावरों' का प्रयोग अपभ्रंश साहित्यग्रथो में मिलता है, बल्कि कई छन्दो का निर्माण ही अपभ्रश के आधार से हिन्दी में हुआ है ।" अपभ्रंश, प्राकृत और प्राचीन हिन्दी का एक सयुक्त 'पिंगल' छन्दशास्त्र जैनकवि राजमल्ल ने सम्राट् अकवर के शासनकाल में रचकर हिन्दी का वडा उपकार किया है ।" भाषा-विज्ञान के अध्ययन के लिए जैन साहित्यिक रचनाएँ अमूल्य साघन हैं। साथ ही हिन्दी की 'नागरी लिपि' के विकास पर जैन-भडारो में सुरक्षित प्राचीन और अर्वाचीन हस्तलिखित ग्रन्थो से प्रकाश पडता है । अपने सग्रह के दो-तीन हस्तलिखित मग्रह ग्रन्थो में सुरक्षित ' मुडिया-लिपि' की रचनाओ के आधार से हम उस लिपि की उत्पत्ति और विकास का इतिहास प्रकट करने में समर्थ हो सके। ऐसे ही अन्य भाषाओ और लिपियो का भी पता हस्तलिखित जैनग्रन्थो से चलता है । भाषा - विज्ञान के इतिहास के लिए उनका उपयोग महत्त्वपूर्ण है ।
सुङ्ग और सातवाहन काल में वैदिक धर्म को प्रोत्साहन मिला । परिणामत प्राकृतभाषा का, जो राज्य भाषा थी, महत्त्व कम हो चला । उसका स्थान सस्कृत भाषा को मिला । महाकवि कालिदास ने अपनी रचनाएँ संस्कृत भाषा में ही रची। जैनाचार्य उमास्वाति ने जनता की अभिरुचि को लक्ष्य करके जैन सिद्धान्त का सार 'गागर में सागर' के समान अपने प्रसिद्ध सूत्रग्रंथ 'मोक्षशास्त्र' में गर्भित किया । तव से जैनो का संस्कृत साहित्य आये दिन वृद्धिगत होता गया और श्राज उसकी विशालता और सार्वभौमिकता देखने की चीज है । किन्तु हमें तो उसमें भारतीय इतिहास के लिए उपयुक्त सामग्री का दिग्दर्शन करना अभीष्ट है । अत हम अपनी दृष्टि वही तक सीमित रक्खेंगे । जैनो के संस्कृत साहित्य की विशेषता यह है कि उसमें न्याय, दर्शन, सिद्धान्त, पुराण, भूगोल, गणित आदि सभी विषय इस खूब से प्रतिपादित किये गये है कि यदि उनमें से प्रत्येक विषय का कोई इतिहास लिखने बैठे तो जैन साहित्य से सहायता लिए विना वह इतिहास अधूरा ही रहेगा । न्यायशास्त्र का अध्ययन जैनन्याय का ऋणी है, यह उस विषय के ग्रन्थो को उठाकर देखने से स्पष्ट हो जाता है । दर्शनशास्त्र के इतिहास को जानने के लिए भी जैन दार्शनिक ग्रन्थ महत्त्व की चीज है । आजीविक श्रादि मत-मतान्तरो का परिचय उनमें निहित है । जैन गणित की विशेषता भारतीय गणितशास्त्र
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हित्तु ॥ पडिहारू ॥'
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भोजु ॥
नासु ॥'
'देखिये, हमारा 'भारतीय ज्ञानपीठ काशी' द्वारा प्रकाशित होने वाला 'हिन्दी जैन साहित्य का सक्षिप्त इतिहास' नामक ग्रंथ |
२ ''अपभ्रंशदर्पण' - जैन सिद्धान्त भास्कर भा० १२, पृ० ४३ ।
" ''अनेकान्त' वर्ष ४ किरण २, ४, ५ ।
* प्रोभा अभिनंदन - ग्रन्थ ( हिन्दी साहित्य सम्मेलन), पू० २२ (विभाग ५) ।
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