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प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ वल्लभी नगर में देवगिणि क्षमाश्रमण द्वारा लिपिवद्ध किया गया था। अतएव अर्द्धमागधी प्राकृत अङ्गसाहित्य का स्थान जैनो में विशिष्ट है। उसमें भ० महावीर के समय के धार्मिक जगत का विवरण देखने को मिलता है। यही नहीं, उस काल से पहले का इतिवृत भी उसमें सुरक्षित है । साथ ही ईस्वी प्रारभिक शताब्दी तक के राजाओ और प्राचार्यों का भी परिचय उससे उपलब्ध है । सम्राट विक्रमादित्य के व्यक्तित्व और उनके जीवन पर उल्लेखनीय प्रकाश 'कालककथा' आदि अर्द्धमागधी जैन साहित्य ग्रन्थो से ही पडा है। भारतीय काल-गणना में भी इन ग्रन्थो मे सुरक्षित कालगणना मुख्य रूप में सहायक है। प्राचीन भारतीय जीवन की झाकी इन जैनग्रन्थो में देखने को मिलती है, किन्तु पालीपिटक (बौद्ध) ग्रन्थो के आधार से जहाँ 'बौद्धकालीन भारत' (Buddhist India) लिखा गया है, वहाँ अभी तक उस अर्द्धमागधी जैनसाहित्य के आधार से 'जैन भारत' (Jainist India) लिखा जाना शेष है। श्री राधाकुमुद मुकर्जी सदृश विद्वान् इस प्रकार की पुस्तक लिखे जाने की आवश्यकता व्यक्त कर चुके है। उन्होने मुझे लिखा था कि मै ऐसी पुस्तक लिखू, परन्तु उसकी पूर्ति अभी तक नहीं हो सकी है। साराश यह कि अर्द्धमागधी जैन साहित्य प्राचीन भारत के इतिहास को जानने के लिए वहुमूल्य सामग्री से ओतप्रोत है। इसलिए डा० मुकर्जी जैन ग्रन्थो के श्राधार से भारतवर्ष का परिचय लिखने का परामर्श देते है । अर्द्धमागधी जैन साहित्य एव प्रकीर्णक जैन साहित्य के परिचय के लिए हाल ही मे पूना के प्रसिद्ध भाण्डारकर पुरातत्व-मन्दिर द्वारा प्रकाशित प्रो. वेलणकर द्वारा वीस वर्ष में सकलित 'जनरलकोष' नामक ग्रन्थ द्रष्टव्य है । उसके आधार से अंग्रेजी-विज्ञ पाठक उपलब्ध जनसाहित्य का पता पा सकेंगे।
पूर्वोक्त अर्धमागधी अङ्ग साहित्य के अतिरिक्त प्रकीर्णक जैन साहित्य भी अपार है और उसमें भी ऐतिहासिक सामग्री विखरी हुई पडी है । प्राकृत, अपभ्रश, सस्कृत, हिन्दी, गुजराती, तामिल, कन्नड आदि भाषामो में भी जैनो ने ठोस साहित्य-रचना की है। इन भाषाओ के जैन साहित्य में भी उनके रचनाकाल के राज्य-समाज और धर्म-प्रवृत्ति का इतिहास सुरक्षित है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य के प्राकृत-भाषा-अन्य भारतीय अध्यात्म-विचार-सरणी के लिए अपूर्व निधि है। उन्होने तत्कालीन मत-मतान्तरो पर यत्र-तत्र प्रकाश डाला है। साथ ही उनसे पहले हुए कई आचार्यों का भी उल्लेख उन्होने किया है।
अपभ्रश-प्राकृत-साहित्य पर तो जैनो का ही पूर्णाधिकार है। जैन शास्त्र भडारो से अपभ्रश प्राकृत भाषा के अनेक ग्रन्थरल उपलब्ध हुए है । महाकवि पुष्पदन्त के 'महापुराण', 'यशोधरचरित' आदि काव्यग्रन्थो मे तत्कालीन सामन्त-शासन का सजीव चित्रण मौजूद है। उनमे कतिपय ऐसे ऐतिहासिक उल्लेख है, जिनका किसी अन्य स्रोत से पता नहीं चलता। राठौर राजामो के ऐश्वर्य और जैन धर्म के प्रति सद्भावना का वर्णन उनमें निहित है। राठौर राजमन्त्रियो की दैनिक चर्या और दानशीलता का चरित्रचित्रण मत्रीप्रवर भरत और णण्ण के वर्णन में मिलता है।' मुनि कनकामर के 'करकडुचरिय' में दक्षिणापथ के प्राचीन राजवश 'विद्याधर' के राजानो और उनकी धार्मिक कृतियो का वर्णन लिखा हुआ है, जो भ० महावीर से पूर्वकालीन भारतीय इतिहास के लिए महत्त्व की चीज है। अपभ्रशप्राकृत में कई कथा-ग्रन्य है, जिनमें ऐतिहासिक वार्ता विखरी पड़ी है। उसका सग्रह होना चाहिए। किन्तु अपभ्रशप्राकृत के जनसाहित्य का वास्तविक महत्त्व वर्तमान हिन्दी की उत्पत्ति का इतिहास शोधते हुए दीख पडताहै। उसी में हिन्दी का प्राचीन रूप और विकास-क्रम देखने को मिलता है। हमने अन्यत्र कालक्रम से उद्धरण उपस्थित करके
'सक्षिप्त जैन इतिहास, भा० २, खड २ पृ० ११६ व उत्तराध्ययन सूत्र (उपसला) भूमिका, पृ० १६
जैन एटीक्वेरी, भा० १११० ४-५
'महापुराण (मा० अ० वम्बई) भूमिका, पृ० २८-३३ व यशोधर चरित्र (कारजा सीरीज) भूमिका, पृ० १६-२१।
*फरफडुचरिय (फारजा सीरीज) भूमिका, पृ० १५-१८ ।