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जैन साहित्य में प्राचीन ऐतिहासिक स ग्री
श्री कामताप्रसाद जैन
जैन साहित्य जितना ही विशाल है, उतना ही वह अज्ञात भी है । उसके अनेक बहुमूल्य रत्न आज भी किसी एकान्त भण्डार की शोभा बढा रहे है। बाहर की दुनिया की बात तो न्यारी है, स्वय जैनियो को ही यह पता नही कि उनके घर में कैसे-कैसे अन्ठे रत्न है । उन रत्नो को प्रकाश में लाने का उद्योग यद्यपि अब होने लगा है, तथापि वह सन्तोषजनक नही है । उस पर, जो भी प्रकाशन होता है वह जैनो के खास समुदाय तक सीमित रहता है । जैनो ने ऐसा कोई प्रबन्ध नही किया है, जिससे उनका साहित्य श्रजैन विद्वानो को सुलभता से प्राप्त हो सके । यही कारण है कि जैन साहित्य के महत्त्व को आधुनिक साहित्यरथी नही आँक पाये है । इसमें दोष हमारा ही है। श्री नाथूराम जी 'प्रेमी' ने अपने व्यक्तिगत श्रादर्श से इस दोष को हल्का करने का उद्योग बहुत पहले किया था, परन्तु अकेले उनका यह कार्य न था । उनके आदर्श का अनुकरण जैनो को सामूहिक रूप में करना चाहिए। ऐसा करने से ही जैन साहित्य का वास्तविक स्वरूप बाह्य जगत को ज्ञात होगा ।
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जैन साहित्य पर एक विहगम दृष्टि डालने से ही उसका विशाल रूप स्पष्ट हो जाता है । उपलब्ध जैन साहित्य की मूल आधार शिला जिनेन्द्र महावीर वर्द्धमान की, जिन्हें निर्ग्रन्थ ज्ञात्रिपुत्र भी कहते हैं, वाणी है । जिनेन्द्र महावीर के मुखारविन्द से जो वाणी निर्गत हुई, उसी की ग्रन्थबद्ध रचना गणवर इन्द्रभूति गौतम ने की थी । वह जिन-वाणी बारह अङ्ग-ग्रन्थो में रची गई थी । वारहवें दृष्टिवाद अग में चौदह पूर्व-प्रन्थो का समावेश था । इसके अतिरिक्त अद्भूवाह्य प्रकीर्णक साहित्य भी था । किन्तु जैनो का यह प्राचीन साहित्य पुरातन परिपाटी के अनुसार मेघावी ऋषिवरो की स्मृति में सुरक्षित था । ज्योज्यो ऋषिवरो की स्मृति क्षीण होती गई, जैनो का यह प्राचीन साहित्य लुप्त होता गया । कलिङ्ग चक्रवर्ती एल० खारवेल ने इस जैन वाङ्मय के उद्धार का उद्योग जैनयतिवरो का सम्मेलन बुलाकर किया था, किन्तु उनका यह स्तुत्य प्रयास भी काल की करालगति को रोक न सका। अलबत्ता उस सम्मेलन में यदि अवशेष अङ्ग साहित्य लिपिबद्ध कर लिया जाता तो जैन साहित्य की अमूल्य निधि सर्वथा लुप्त न होती, किन्तु मालूम ऐसा होता है कि जैन अङ्ग-प्रन्थो के विशाल रूप और उनके प्रति विनयभाव ने उस सम्मेलन में लिपिबद्ध करने का प्रश्नही उपस्थित नही होने दिया । दिगम्बर जैन कहते है कि श्रङ्गगत अर्द्धमागधी भाषा का वह मूल साहित्य प्राय सर्वलुप्त हो गया । दृष्टिवाद अङ्ग के पूर्वगतभ्प्रन्थ का कुछ प्रश ईस्वी प्रारंभिक शताब्दी में श्रीधर सेनाचार्यं को ज्ञात था । उन्होने देखा कि यदि वह शेषाश भी लिपिबद्ध नही किया जायगा तो जिनवाणी का सर्वथा अभाव हो जायगा । फलत उन्होने श्री पुष्पदन्त और श्री भूतवलि सदृश मेघावी ऋषियोको बुलाकर गिरिनार की चन्द्रगुफा में उसे लिपिबद्ध करा दिया । उन दोनो ऋषिवरो ने उस लिपिबद्ध श्रुतज्ञान को ज्येष्ठ शुक्ला पचमी के दिन सर्व सघ के समक्ष उपस्थित किया था । वह पवित्र दिन 'श्रुत पचमी' पर्व के नाम से प्रसिद्ध है और साहित्योद्धार का प्रेरक कारण बन रहा है ।" यह तो दिगम्बर जैनो की मान्यता है, परन्तु श्वेताम्बर जैन ऐसा नही मानते । वह समग्र अर्द्धमागधी अङ्ग -साहित्य को सुसस्कृत रूप में उपलब्ध बताते हैं । उनके यहाँ अङ्ग-ग्रन्थ है भी । श्वेताम्बर जैन 'आचाराङ्ग-सूत्र' के कुछ शका एव पूर्वगत साहित्य का सर्वथा लोप हुआ बताते हैं । उनका यह अङ्ग -साहित्य ईस्वी छठी-सातवी शताब्दी मे
१ 'जर्नल प्रॉव दी बिहार ऍड प्रोड़ीसा रिसर्च सोसाइटी, भा० १३: पृ० २३६
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'घवला टीका (अमरावती) भा० १, भूमिका पू० १३-३२