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समाज-सेवा
६४१ धर्म रोक्ता है।
धर्म आगे ढकेला करता है, रोका नहीं करता और अगर वह रोकता है तो धर्म नहीं है । धर्म के रूप मे कोई रूढि या रिवाज है । जो रोकता है, वह धर्म नहीं होता। वह होता है 'धर्म का डर'। धर्म खुद तोडखानी चीज़ नहीं। वह तो बडी लुभावनी चीज़ है, पर धर्म के नाम पर चली रस्में बेहद डरावनी होती है । अगर डराती है तो वे । अगर रोकती है तो वे । उस डर को भगाने में ममझ वढी मददगार सावित होगी।
ढर हम में है नहीं। वह हम में पैदा हो जाता है या पैदा करा दिया जाता है। जो डर हम मे है, वह वडे काम की चीजहै। यह इतनाही है जितना जानबरोमे। जिन कारणो से जानवर डरते है, उन्ही कारणो से हम भी। उतना डर नो हमे उतरे मे बचाता है और खतरे को वरवाद करने की ताकत देता है। अचानक वदूक की आवाज़ से हम आज तक उछ न पड़ते हैं। हमारी हमेशा की जानी-पहचानी विजली की चमक हमको आज भी डरा देती है। इतना डरतो काम की चीज़ है, पर जब हम भूत-प्रेत से डरने लगें, नास्तिकता से डरने लगें, नर्क से डरने लगे, मौत मे डरने लगे, प्रलय मे डरने लगे, तब ममझना चाहिये कि हमारा डर वीमारी में बदल गया। उसके इलाज की जरूरत है। तिल्ली और जिगर तो काम की चीजे है, पर बडी तिल्ली और वडा जिगर बीमारियां है। वडा डर भी बीमारी है। मामूली पर हमारी हिफाजत करता है, वढा हुअा डर हमारा खून चूमता है। हमें मिट्टी मे मिला देना है। मिट्टी में मिनने ने पहिले हम उसे ही क्यो न मिट्टी में मिलादें। भूत-प्रेत आदि है नहीं। हमने खयाल से बना लिये है। जने हम अंधेरे में रोज ही तरह-तरह की गकलं बना लेते है।
उपोक को धर्म हिम्मत देताहै,तसल्ली देताहै, वच भागने को गली निकाल देताहै। जिन्हें अपने आप सोचना नहीं पाता, धर्म उनके बड़े काम की चीज है। सोचने वाले ना समझदारो के लिए ही तो सोच कर रख गये है। मोचने ममझने वालो के लिये धर्म जाल है, धोका है, छल है। धर्म आये दिन की गुत्थियो को नहीं सुलझा सकता, कभी-कनी और उलझा देना है। धर्म टाल-मटोल का अभ्यस्त है और टालमटोल में नई उलझनें खड़ा कर देता है।
मुनी वनने और समाज को सुखी बनाने के लिये यह विलकुल जरूरी है कि हमारे लिये औरो के सोचे धर्म को हम अपने में मे निकाल बाहर करें-उसकी रस्में, उमकी पादते, उमकी छूत-छात, उसका नर्क-स्वर्ग, उसकी तिलक आप, उसकी टाढी-चोटी उसका घोती-पाजामा, एक न बचने दे। नचाई, भलाई और सुन्दरता की खोज में इन मव को लेकर एक कदम भी आगे नहीं बढा जा सकता।
मां बच्चे के लिये होवा गढती है । बच्चा डरता है। मां नही डरती। मां क्यो डरे । वह तो उसका गढा हुआ है। महापुरुप एक ऐसी ही चीज़ हमारे लिये गढ जाते है । हम डरते है, वे नही डरते । जो दिखाई-सुनाई नही देता, मोसमझ में नहीं आता, जो सव कही और कही नहीं बताया जाता, ऐसे एक का डर हम में विठा दिया जाता है। धर्म माधारण ज्ञान और विज्ञान की तरह सवाल-पर-सवाल पैदा करने में काफी होशियार है, पर जवाब देने या हल मोच निकालने में बहुत ही कम होशियार । वह होनी वाती को छोड अनहोनी मे जा दाखिल होता है। धर्म की इम पादन मे आम आदमियों को बडे टोटे में रहना पड़ता है। वे जाने अनजाने अपनी अजानकारी को कबूल करना योट वैठने है। इस जरा-नी, पर बडी भूल से आगे की तरक्की रुक जाती है । समझदार अपनी अजानकारी जानता भी है और पौरोकोभी कह देता है। समझदारी की वढवारी में अजानकारी भी वढती है, पर इससे समझदार घवराता नही। खोज में निकला आदमी बीहड जगलो से घबराये तो आगे कैसे वढे ? समझदार अपने मन में उठे सवालो का काम-वलाऊ जवाब सोच लेता है, वे जवाव कामचलाऊ ही होते है, पक्के नही । पक्केपन की मोहर तो वह उन पर तव लगाता है जब वे तजुरुवे की कसौटी पर ठीक उतरते है।
जो जितना ज्यादा रूढिवादी होगा, वह उतना ही ज्यादा धर्मात्मा होगा, उतना ही ज्यादा अजानकार होगा, उतना ही ज्यादा उसे अपनी जानकारी पर भरोसा होगा। वह स्वर्ग को ऐसे बतायेगा, मानो वह अभी वहां से होकर आ रहा है । वह ईश्वर को ऐसे समझायेगा, मानो वह उसे ऐसे देख रहा है, जैसे हम उसे ।
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