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बुन्देलखण्ड का एक महान सगीतज्ञ
५६७ गणेश जी को नगीन पर परिश्रम करने का समय और अवकाग न मिला था, परन्तु मैंने उस्ताद मे गाना मुनाने के लिए कहा। उम्नाद ने तुरन्त विना वाजे-बाजे के एक स्याल सुनाया। गणेश जी उस्ताद की कारीगरी पर अचम्भे मे भर पाए। बोले, "उस्ताद, आप निस्मन्देह इम कला के बहुत बडे कारीगर है। आपके गले में मशीन-सी लगी जान पड़नी है, पर गाना आपका इतना मुश्किल है कि साधारण जनता नहीं समझ सकती। इसको इनना मरल बनाइए कि मामूली आदमी भी समझ सके।"
उस्ताद वटे हाजिर-जवाव है। तुरन्त बोले, “जनाव, आप नेता है, वहुत बड़े नेता है । एम० ए०, वी० ए० पास वाले लोगो के मज़मून ममझने के लिए जनता को कुछ पढना पड़ता है या नहीं ? तव हमारी नाद-विद्या को ममझने के लिए भी पहले लोगो को कुछ मीखना चाहिए।"
उन्नाद की पढाई-निवाई की वात हुई। स्वय परिचय दिया, "मैंने तो मरमुती जी की पूजा की है। पढानदा कुछ नहीं। छुटपन में बकरियां चगता था और एक पमे में पांच चीजें गाकर मुना देता था। डड पेलता था। एक पैने की प्रागा पर मो इट पेल कर दिखला देता था।"
विद्यार्थी जी बहुन हमे।
बहुत-से विद्वानी में एक कमर होती है। वे ठीक तौर पर विद्यादान नहीं कर मकते। ठोकपीट कर अपने विद्यार्थियो को नयार करते है और फिर भी अपनी बात नहीं समझा पाते। उस्ताद आदिलों में उनकी महान् विद्वत्ता के माथ यह महान् गुण भी है कि वह महज ही अपने विद्यार्थियो को पूरा विद्यादान करते है। डाटते-फटकारते है
और यदाकदा चांटे भी लगा देते है, परन्तु छोटे-मे-छोटे लटके-लडकियों को भी इतनी शीघ्रता के माथ इस कठिन विषय को इतनी ग्रामानी ने नमझा देते हैं कि आश्चर्य होता है। और पुरस्कार के लिए कोई हठ नहीं करते । जो मिल जाय, उम पर मन्नोप करने है । विना बुलाए कभी किमी राजा या नवाव के यहां भी नही जाते। प्रयाग मे एक महती मगीत वान्म हुई। उम्नाट वुलाए गए। श्री पटवर्धन, श्री प्रोकारनाथ, श्री नारायणगव व्यास प्रभृति भी उस बैठक में आए थे। उस्ताद को स्वर्णपदक मिला। मव बडे-बटे गवयो ने उनकी सराहना की। प्रयाग की मगीत समिति के नयोजक प्रयाग-विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर थे। उन्होंने उस्ताद को अपने यहां गाने के लिए बुलवाया । उन्नाद के ठग्ने का प्रवन्व मने प्रयाग के एक अपने वकील मित्र के यहां किया था। उस्ताद ने उत्तर भेजा, "मैं ऐने नहीं आ सक्ना। जिनका मै मेहमान हूँ, उनको लिसिए। वह इजाजत देंगे तो पाऊंगा, नहीं तो नहीं।" मगीत-ममिति के सयोजक इन पर कुट गए । उम्ताद ने विलकुल परवाह नहीं की।
झांमी में एक मगीतनम्मेलन सन् १९४० मे हुआ। यहां भी उनको स्वर्णपदक मिला। पुरस्कार की वात हुई। बोले, "या तो पुरस्कार की वात विलकुल न करो, क्योकि झांसी का हूँ, पर यदि वात करोगे तो जो वाहर वालो को दिया है, वही मै लूगा । कम लेने में मेरा अपमान है।"विवाद हुआ। मेरे लिए पचायत कर देने का प्रस्ताव उस्ताद के मामने आया। तुरन्त बोले, "बडे भैया कह दे कि पाम से कुछ चन्दा सगीत सम्मेलन को दे दो तो आपसे कुछ भी न लेकर गाँठ का और दे दूगा।" उनका कहना ठीक था। मैने पचायत कर दी और उनको सन्तोप हो गया।
उस्ताद का राजनैतिक मत भी है। गवरमट को बहुत प्रवल मानते हुए भी वह राष्ट्रवादी है और हिन्दूमुस्लिम समस्या उपस्थित होते ही निप्पक्ष राय देते है । कितने भी मुसलमानो की मजलिस हो और कही भी हो, यदि हिन्दुओ की कोई भी मुसलमान, चाहे वह कितना ही वडा क्यो न हो, अनुचित निन्दा कोतो उस्ताद आदिलखां विगड पडते है और घोर प्रतिवाद करते है और न्याय-पक्ष की वकालत करते है। हिम्मत के इतने पूरे है कि यदि हजार की भी बैठक में कोई उनके किसी मित्र की बुराई करे तो तुरन्त उसका विरोध और अपने मित्र का समर्थन करते है। मैने म्वय उनको कहते सुना है, "यह वुज़दिली है । जिनकी बुराई पीठ पीछे कर रहे हो, उनके मुंह पर करो तव जानू ।"