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प्रेमी - श्रभिनंदन - प्रथ
फिर उस कर्म-वन्ध की निर्जरा यानी क्षय किस प्रकार होगा, आसव ( आने) का सबर ( रुकना) कैसे होगा और अन्त में अनात्म आत्म पूरी तरह शुद्ध होकर कैसे बुद्ध और मुक्त होगा, इसकी पूर्ण प्ररूपणा है ।
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इतना ही नही, जैन- शास्त्र आरम्भ करके रुकता अन्त से पहले नही । मुक्त होकर आत्मा लोक के किस भाग मे, किस रूप में, किस विधि रहता है, इसका भी चित्र है ।
सक्षेप में वह सब जो रहस्य है, इससे खीचता है, अज्ञात है, इससे डराता है, असीम है, इससे सहमाता है, अद्भुत है, इससे विस्मित करता है, अतर्क्य है, इससे निरुत्तर करता है - ऐसे सब को जैन - शास्त्र ने मानो शब्दो की और अको की सहायता से वशीभूत करके घर की साकल से वाँध लिया है। इसी अर्थ में में इस दर्शन को परम वौद्ध और परम साख्य का रूप मानता हूँ । गणना-बुद्धि की उसमे पराकाष्ठा है । उस बुद्धि के अपूर्व अध्यवसाय और स्पर्धा और प्रागल्भ्य पर चित्त सहसा स्तब्ध हो जाता है ।
दिल्ली ]