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स्याद्वाद और सप्तभंगी
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वस्तु के एक धर्म का भी प्रतिपादन कर सकता है और कभी एक धर्म के द्वारा पूर्ण वस्तु का भी वोध करा सकता है, क्योकि शब्द की प्रवृत्ति वक्ता के ग्राधीन है। जीव शब्द केवल जीवनगुण का भी वोध करा सकता है और 'अस्ति' शव्द अस्तित्व गुण विशिष्ट पूर्ण वस्तु का भी प्रतिपादन कर सकता है । अत " वर्मिवाचक शब्द सकलादेशी ही होते हैं और धर्मवाचक शब्द विकलादेशी ही होते है" यह कहना असगत जान पड़ता है। जैसा कि हम पहिले विद्यानन्दि का मत बतला श्राये है, दोनो गब्द दोनो का प्रतिपादन कर सकते है ।
क्या प्रत्येक वाक्य के साथ एवकार का प्रयोग आवश्यक है ?
दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रश्न एवकार के विषय मे है । एवकार वादियों का मत है कि शब्द के साथ एवकार (हिन्दी में उमे "ही" कहते है ) यदि न लगाया जाये तो सुनने वाले को निश्चित अर्थ का बोध नही होता । जैसे किमीने कहा--' घट लाओ'। सुनने वाले के चित्त में यह विचार पैदा होता है कि घट पर कोई खाम जोर नही दिया गया है, अत यदि घट के बदले लोटा ले जाऊँ तव भो काम चल सकता है । किन्तु यदि 'घट ही लायो' कहा जाये तो श्रोता को अन्य कुछ मोचने की जगह नहीं रहती और वह तुरन्त घट ले याता । अत निश्चित पदार्थ का बोध कराने के लिए प्रत्येक वाक्य में अवधारण होना आवश्यक है ।
इस मत पर टोका टिप्पणी करने से पहले, प्रमाण वाक्य और नय वाक्य के विषय में, हम पाठको को एक वात बतला देना आवश्यक समझते है । प्रमाण वाक्य मे वस्तु के सब धर्मों की मुख्यता रहती है और नयवाक्य मे जिस धर्म का नाम लिया जाता है केवल वही धर्म मुख्य होता है और गेव वर्म गौण समझे जाते है । दोनो वाक्यो के इस आन्तरिक भेद को, जिभे ममम्त जैनाचार्य एक स्वर मे स्वीकार करते हैं, दृष्टि में रख कर 'प्रमाणवाक्य में एवकार का प्रयोग होना चाहिए या नहीं' इम प्रश्न को मीमासा करने में सरलता होगी।
"स्यादस्त्ये व जीव ” (स्यात् जीव सत् ही है) एवकारवादियो के मत से यह प्रमाणवाक्य है । अत इसमे मुख्यता का सूक्ष्म-मा भी
मव धर्मो की मुख्यता रहनी चाहिए। किन्तु विचार करने मे इस वाक्य मे सब धर्मों की श्राभाम नही मिलता । कारण, एवकार अर्थात् 'ही' जिम गब्द के साथ प्रयुक्त होता है केवल उमी धर्म पर ज़ोर देता है और शेष धर्मो का निराकरण करता है । इमीमे मस्कृत मे उसे अवधारणक और अन्य व्यवच्छेदक के नाम से पुकारा जाता है । जव वक्ता सत् पर जोर देता है तब केवल सत् धर्म को ही प्रधानता रह जाती है, शेष धर्मों की प्रधानता को एवकार निगल जाता है । इमीमे स्वामी विद्यानन्दि ने लिखा है ' 'म्यात्कार के विना श्रनेकान्त की सिद्धि नही हो मकती, जैमे एवकार के विना यथार्थ एकान्त का अवधारण नहीं हो सकता ।' एवकार को हटा कर यदि 'स्यादस्ति जीव. ' कहा जाए तो किमी एक धर्म पर जोर न होने से सव धर्मों की प्रधानता सूचित होती है और इस दशा मे हम उसे प्रमाणवाक्य कह सकते है । शायद यहाँ पर आपत्ति की जाये कि एवकार के न होने से सुनने वाले को निश्चित धर्म का बोध नही होगा । श्रत श्रोता अस्तित्व धर्म के साथ नास्तित्व आदि धर्मो का भी ज्ञान करने में स्वतन्त्र होगा। यह प्रपत्ति हमें इप्ट ही । प्रमाणवाक्य से श्रोता को वस्तु के किसी एक ग्रश का भान नही होना चाहिए। यह कार्य तो नय वाक्य का है । अत प्रमाणवाक्य और नयवाक्य के लक्षण की रक्षा करते हुए, हम इसी निर्णय पर पहुँचते हैं कि दोनो वाक्यो का आन्तरिक भेद वक्ता की विवक्षा पर अवलम्वित: । और बाह्य भेद एवकार के होने न होने से जाना जा सकता है ।
जो श्राचार्य प्रमाण वाक्य और नय वाक्य के प्रयोग में कोई अन्तर नही मानते हैं उनके मत से वस्तु के समस्त गुणो मे काल, आत्मा, अर्थ, गुणिदेश, ससर्ग, सम्बन्व, उपकार श्रौर शब्द की अपेक्षा श्रभेदविवक्षा मान कर एक धर्मं को भी अनन्त धर्मात्मक वस्तु का प्रतिपादक कहा जाता है ।
१ "न हि स्यात्कारप्रयोगमन्तरेणानेकान्तात्मकत्वसिद्धि, एवकारप्रयोगमन्तरेण सम्यगेकान्तावधारणसिद्धिवत्" । — युक्त्यनुशासन पृ० १०५ ।
टीका