________________
प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ
यह तो हुआ वाक्यो का शास्त्रीय विवेचन । साधारण रीति से सम्पूर्ण द्वादशाग वाणी प्रमाणश्रुत और उसका प्रत्येक अग नयश्रुत है । या प्रत्येक ग्रग प्रमाणश्रुत है और उस श्रग का प्रत्येक श्रुत स्कन्ध नयश्रुत है । या सम्पूर्ण ग्रन्थ प्रमाणश्रुत है और उसका प्रत्येक वाक्य नयश्रुत हैं । इसी तरह वक्ता एक वस्तु के विषय में जितना विचार रखता है वह पूर्ण विचार प्रमाण है और उस विचार का प्रत्येक अश नय है ।
इस तरह प्रमाण और नय की व्यवस्था सापेक्ष समझनी चाहिए ।
सप्तभगीवाद
वस्तु और उसके प्रत्येक धर्म की विधि, प्रतिषेध सापेक्ष होने के कारण, वस्तु और उसके धर्म का प्रतिपादन सात प्रकार से हो सकता है। वे सात प्रकार निम्नलिखित है
-
३४०
१ - स्यादस्ति २ स्यात् नास्ति
३ - स्यादस्ति नास्ति
४ - स्यादवक्तव्य
कथचित् है ।
५- स्यादस्ति वक्तव्य, च
६ -- स्यान्नास्ति अवक्तव्य, च
७ - स्यादस्ति नास्ति, अवक्तव्य, च
"
33
33
"1
11
नही है । है और नही है ।
श्रवाच्य है ।
है और श्रवाच्य है ।
नही है और श्रवाच्य है ।
है, नही है, और अवाच्य है ।
11
इन सातो प्रकारो के समूह को सप्तभगी कहते है । इन सात वाक्यो का मूल विधि और प्रतिषेध है'। इसलिए आधुनिक विद्वान् इसे विधिप्रतिषेधमूलक पद्धति के नाम से भी पुकारते है ।
उपलब्ध समस्त जैन वाङ्मय में, आचार्य कुन्दकुन्द के पचास्तिकाय और प्रवचनसार मे सबसे प्रथम सात भगी का उल्लेख पाया जाता है। जैनेतर दर्शनो में, वैदिक दर्शन में यद्यपि अनेकान्तवाद के समर्थक अनेक विचार मिलते हैं और इसीलिए सत् असत् उभय और अनिर्वचनीय भगो का आशय भिन्न-भिन्न वैदिक दर्शनो में देखा जाता है, फिर भी उक्त सात भगो में से किसी भी भग का सिलसिलेवार उल्लेख नही है । बौद्धदर्शन मे तो स्थान स्थान पर सत्, असत् उभय और अनुभय का उल्लेख मिलता है जो चतुष्कोटि के नाम से ख्यात है । माध्यमिकदर्शन का प्रतिष्ठापक प्रार्य नागार्जुन उक्त चतुष्कोटि से शून्य तत्त्व की व्यवस्थापना करता है ।
जैनो की श्रागमिक पद्धति मे वचनयोग के भी चार ही भेद किये गये है- सत्य ( सत्), असत्य (असत्), उभय और अनुभय । जैन श्रागमिक पद्धति मे तथा बौद्धदर्शन मे जिसे अनुभय के नाम से पुकारा गया है, जैनदार्शनिक पद्धति में उसे ही अवक्तव्य या अवाच्य का रूप दिया गया है । अत मप्तभगी के मूल स्तम्भ उक्त चार भग ही है, जिन्हे जैनो की आगमिक पद्धति तथा जैनेतर दर्शनों में स्वीकार किया गया है। शेष तीन भग, जो उक्त चार भगो के मेल से तैयार किये गये है, शुद्ध जैन दार्शनिक मस्तिष्क की उपज है ।
'विधिकल्पना (१) प्रतिषेधकल्पना (२) क्रमतो विधिप्रतिषेधकल्पना (३) सह विधिप्रतिषेधकल्पना (४) विधिकल्पना, सह विधिप्रतिषेधकल्पना (५) प्रतिषेधकल्पना, सह विधिप्रतिषेधकल्पना (६) क्रमाक्रमाभ्या विधिप्रतिवेधकल्पना (७) अष्टसहस्री, पृ० १२५ ।
"न सन्नासन्न सदसन्न चाप्यनुभयात्मकम् ।
चतुष्कोटिविनिर्मुक्त तत्त्व माध्यमिका विदु ॥" -- माध्यमिककारिका