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सस्कृति का मार्ग --समाज-सेवा
६४५ को जल्दी से जल्दी तन्दुरुस्त करने की कोशिश करेगा और समय-समय पर ऐसे आदमियो को भी अपनी कीमती सलाह और दवाई तक देगा, जो बेचारे अपनी गरीबी के कारण किसी तरह की फीस नही दे सकते ।
अव कारखाने वाले की बात लीजिये। जब उसका उद्देश्य केवल रुपया कमाना है तो वह ग्राहको की आँखो मे धूल 'झोकने की कोशिश करेगा, घटिया माल को वढिया बताएगा और तरह-तरह की चालाकी करके खूब मुनाफा पैदा करेगा, यहाँ तक कि जनता को नुकसान पहुँचाने वाली और उसका धन वरवाद करने वाली चीजे बनाने और उनका प्रचार करने में तनिक भी सकोच न करेगा। लेकिन अगर कारखाने वाले में सेवा-भाव है तो वह हमेशा समाज के हित का विचार करेगा । ऐसी ही चीजें बनाएगा जो लोगो के लिए बहुत उपयोगी और टिकाऊ हो । वह वढिया माल बनाएगा और मामूली नफे से बेचेगा ।
इसी तरह दूसरे कामो के बारे में भी विचार किया जा सकता है । सेवा-भाव होने से हमारी कार्य-पद्धति ही वदल जायगी और हाँ, चाहे हमारी श्रामदनी कम रहे, हमारे मन में श्रानन्द रहेगा । हमे यह सन्तोष रहेगा कि हम अपने भाई-बहिनो के प्रति अपने कर्त्तव्य का भरसक पालन कर रहे हैं। इससे हमे शान्ति और सुख मिलेगा । अच्छा हो, हर नवयुक अपने पथ प्रदर्शन के लिए प्रति सप्ताह किसी खास आदर्श का विशेष रूप से अभ्यास करे और कुछ सिद्धान्त वाक्यो को सुन्दर और मोटे अक्षरो मे लिख कर अपने काम करने के कमरे में लगा ले, जिससे समयसमय पर उनकी ओर ध्यान जाता रहे । आदर्श या सिद्धान्त - वाक्यो के कुछ उदाहरण नीचे दिये जाते है
१ लोक-सेवा ही पूजा है ।
२ दूसरो से ऐसा व्यवहार करो, जैसा हम चाहते हैं कि दूसरे हम से करें ।
३ अगर धन गया तो कुछ नही गया, अगर स्वास्थ्य गया तो कुछ गया, अगर सदाचार गया तो सब कुछ गया । ४ दूसरो को ठगने वाला अपनी अवनति पहिले करता है ।
यह तो व्यक्तियो की बात हुई। इसी तरह हर परिवार या सस्था को अपना उद्देश्य बहुत सोच-समझ कर स्थिर करना चाहिए । यही नही, हर जाति या राष्ट्र को भी अपने सामने मानव सेवा का निश्चित लक्ष्य रखना चाहिए । सवको इस बात की कोशिश करनी चाहिए कि उसका हर सदस्य अच्छे-अच्छे गुणो वाला हो । सच्चा, ईमानदार, मेहनती, स्वावलवी और लोक-सेवी । किसी देश या राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति की पहचान ही यह है कि उसके श्रादमी कितने योग्य और सेवा-भावी है ।
राष्ट्रो को सोचना चाहिए कि इस समय ससार में पूजीवाद और साम्राज्यवाद का भयकर जोर है । हरेक सभ्य देश हिंसा - काण्ड मे दूसरो से बाजी मार ले जाना चाहता है। ऐसे समय क्या मानवता की सेवा के लिए कुछ राष्ट्र हिंसा और प्रेम का आदर्श रखने वाले न हो ? क्या सभ्य और उन्नत कहे जाने वाले राष्ट्रो मे कुछ ऐसे न मिलेंगे, जो स्वय निस्वार्थ भाव से काम करें और दूसरो से स्वार्थ त्याग करने की अपील करें ? क्या कुछ राष्ट्र यह आदर्श न अपनायेंगे कि पूजीवाद का अत करो, साम्राज्यवाद को छोडो, ससार का हर एक देश और जाति स्वतंत्र हो, कोई किसी भी बहाने से दूसरो को अपने अधीन न करे और दूसरो का शोषण न करे ? आज दिन मानव-सन्तान वर्ण-भेद और जाति-भेद से घोर कष्ट पा रही है । राष्ट्रो का श्रादर्श वाक्य होना चाहिए -वर्ण-भेद दूर करो, जाति-भेद मिटाओ, काला आदमी और पीला आदमी भी उसी प्रभु की सन्तान हैं, जिसकी सन्तान गोरा या भूरा आदमी है । सब आपस मे भाई-भाई है । भेद-भाव मिटाश्रो और सबसे प्रेम करो। सवकी सेवा करो सेवा ही उन्नति, विकास, सभ्यता और सस्कृति का मार्ग है ।
प्रयाग ]