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________________ देवगढ़ का गुप्तकालीन मंदिर श्री माधवस्वरूप 'वत्स' एम० ए० गुप्त-युग प्राचीन भारत का 'स्वर्ण युग' कहा गया है । भारत के राजनैतिक, सास्कृतिक, वैज्ञानिक, धार्मिक, कलात्मक तथा वास्तु-सवधी कार्यों पर गुप्त-युग ने एक अमिट छाप लगा दी है । प्रतापी मौर्य सम्राट् अशोक के राज्य-काल मे वौद्धधर्म की पताका फहरने लगी थी, परतु उसके बाद ही ब्राह्मण धर्म को जाग्रति होने लगी और गुप्त काल मे इस धर्मं ने महान् उत्कर्ष प्राप्त किया । यद्यपि राजनैतिक क्षेत्र मे गुप्त साम्राज्य को प्रभुता पाँचवी शती के वाद नही रही तथापि सास्कृतिक क्षेत्रो मे वह साम्राज्य के नष्ट होने के डेढ सौ वर्ष बाद तक बनी रही । इस युग की मूर्तिकला की भाति चित्र कला में भी जो समन्वय तथा सयम की भावना, कारीगरी की पूर्णता तथा श्रग प्रत्यगो का सुपुष्ट सयोजन देखने को मिलता है उससे बढिया अन्यत्र दुर्लभ है । अजता (अचित्य ) और बाघ, वादामो तथा सित्तन्नवासल आदि के कलाकोष तथा सारे भारत भर में बिखरी हुई इस युग की अनेकानेक मूर्तियाँ जो वास्तव मे आदर्श कला-प्रदर्शन के कारण बहुमूल्य है, कला - कोविदो की प्रशसा का पात्र वन चुकी है। वास्तुकला के क्षेत्र मे भी इस युग में भारतीय मंदिर निर्माण को दो रोतियो का प्रादुर्भाव पाया जाता है -- एक नागर रोति और दूसरी द्राविड । पहली का विस्तार उत्तर भारत में शिखरो के रूप में हुआ और दूसरो दक्षिण भारत में विमानो के रूप में विकसित हुई । ये दोनो शैलियाँ दक्षिण में ऐहोल के दुर्गा और लादखा के मंदिरो मे साथ-साथ पाई जाती है । देवगढ तथा भोतरगॉव के मदिरो मे चौरस छत के ऊपर शिखर का निर्माण मिलता है, जैसा कि साँचो, तिगवा, नचना कुठारा तथा उत्तर भारत के अन्य मदिरो मे पाया जाता है । वोरे-धीरे मध्यकाल मे उक्त दोनो शैलियाँ क्रमश उत्तर तथा दक्षिण भारत की मंदिर निर्माण - कला का प्रतीक हो गई । पत्थर के बने हुए प्राचीन शिखर का नमूना उत्तर भारत मे केवल एक मिलता है और वह देवगढ (जिला झासी) का दशावतार मंदिर है, जिसका समय छठी शताब्दी ई० का प्रारम्भ माना जा सकता है । यद्यपि इस मंदिर के शिखर का ऊपरी भाग बहुत समय पहले नष्ट हो गया, तथापि हाल में मुझे सौभाग्य से शिखर के अलकृत द्वार- स्तभ के बाहरी शोर्षमाल के ऊपर पत्थर की कुछ श्रनुकृतियाँ मिली, जिन्हे मैं इसी मंदिर या इससे मिलते हुए किसी अन्य समकालीन मंदिर के छाया- श्रश समझता हू । ऐसा मालूम पडता है कि देवगढ का मंदिर सीधी रेखाओ से निर्मित एडूक ( पिरामिड) के समान था, जिसकी मेधियाँ क्रमश छोटो होती चली गई थी। मंदिर की प्रत्येक दीवार के बीच मे जो बाहर निकला हुआा वडा हिस्सा था, जिसमें एक चौडा, गहरा खुदा हुआ याला दो खभो के बीच में बनाया गया था, वह शिखर के ऊपर तक पहुँचता था और उस पर प्रधान अलकरण की वस्तु प्राचीन चैत्यो में उपलब्ध वातायन की रचना थी। मंदिर के द्वार - स्तभ पर शिखर को प्रतिकृति बना हुई है। उससे यह भी पता चलता है कि कोनो मे तथा सिरे पर श्रामलक बनाये गये थे । अत देवगढ मे हमको गुप्त कालोन शिखर का एक विकसित रूप देखने को मिलता है, जो बाद में समय के अनुसार अधिक ऊँचा, पिरामिड को शक्ल का, अडाकार, अधिक विकसित तथा अलकृत होता गया । कुछ कारणो से, जिन्हे में यहाँ देना नही चाहता, कनिंघम के इस कथन से मैं सहमत नही हूँ कि चूंकि चबूतरे के ऊपर कुछ खभे पडे मिले थे, अत चबूतरे के चारो तरफ एक-एक स्तम्भयुक्त मडप रहा होगा, जो उन्ही खभो पर सधा था । राखालदास बनर्जी का भी यह मत कि सारे चबूतरे के ऊपर एक समतल छत थी, ठीक नही प्रतीत होता । जैसा कि कनिघम ने लिखा है, चबूतरे के ऊपर का उठा हुआ मंदिर का हिस्सा नौ वर्गों में विभक्त था और उनके बीचोबीच गर्भगृह स्थित था। अधिष्ठान की जो खुदाई रायबहादुर दयाराम सहानी ने करवाई है, उससे प्रत्येक कोने मे एक छोटे वर्गाकृति मदिर का पता चला है । इस प्रकार मदिर के मध्य भाग (गर्भगृह) को मिलाकर दशावतार मंदिर उत्तर भारत में प्रचलित पंचरत्न शैली का सबसे प्राचीन 1
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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