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जैन साहित्य
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के हैं और इनकी सख्या काफी अधिक है। पार्श्वनाथ के चरित को अवलम्वन करके लिखे गये काव्यो की भी सख्या कम नही है । वादिराज, असग, वादिचन्द्र, सकलकीर्ति, माणिक्यचन्द्र, भावदेव और उदयवीरगणि आदि अनेक दिगम्वर - श्वेताम्वर कवियो ने इस विषय पर खूब लेखनी चलाई है ।
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जैनो के साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण श्रग प्रबन्ध है, जिन्हें ऐतिहासिक विवृतियाँ कह सकते है । चन्द्रप्रभसूरि का प्रभावकचरित, मेरुतुङ्ग का प्रवन्ध- चिन्तामणि (१३०६ ई०), राजशेखर का प्रवन्ध कोष (१३०८ ई०), जिनप्रभसूरि का तीर्थंकल्प (१३२६-३१ ई०) श्रादि रचनाएँ नाना दृष्टियो से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । इन प्रवन्धो ने इस बात
प्रसिद्ध कर दिया है कि भारतीयों में ऐतिहासिक दृष्टि का प्रभाव था । इसी प्रकार जैन मुनियो की लिखी कहानियो की पुस्तकें भी काफी मनोरजक है । पालित्त ( पादलिप्त ) सूरि की तरङ्गवती कथा काफी प्राचीन पुस्तक है । हरिभद्र का प्राकृत गद्यकाव्य समराइच्च - कहा एक धार्मिक कथा -ग्रन्थ है । इसी तरह की 'कुवलयमाला' कथा भी है, जिसके रचयिता दाक्षिण्य-चिह्न उद्योतन सूरि है (आठवी शताब्दी) । इसी के अनुकरण पर सिद्धर्षि ने संस्कृत में उपमितिभव - प्रपञ्चकया लिखी थी. (६०६ ई० ) । धनपाल का अपभ्रश काव्य 'भविसयत्त - कहा ' काफी प्रसिद्ध है । ऐसी और भी अनेक कथाएँ लिखी गई है । यद्यपि ये धर्म-कथाएँ कही जाती है, पर अधिकाश में काल्पनिक कहानियाँ है । चम्पू जाति के काव्य भी जैन साहित्य में बहुत अधिक हैं । सोमदेव का यशस्तिलक (६५६ ई० ) प्रसिद्धि पा चुका है । हरिचन्द्र का जीवन्धरचम्पू, श्रद्दास का पुरुदेवचम्पू (१३वी सदी) आदि इसी जाति की रचनाएँ हैं । धनपाल की तिलक-मजरी ( ९७० ई०), प्रोडयदेव (वादी सिंह) की गद्यचिन्तामणि कादम्बरी के ढङ्ग के गद्य-काव्य है ( ११वी सदी) । इनके अतिरिक्त कहानियो की और भी दर्जनो पुस्तकें हैं, जिनका मूल उद्देश्य जैनवर्म को महिमा वर्णन करना है । कथाओ के कई सग्रह भी हैं, जो कथाकोश कहलाते हैं । इनमें पुन्नाटसघ के आचार्यं हरिपेण का कथाकोश सब से पुराना है ( ई० स० ६३२) । प्रभाचन्द्र, नेमिदत्तब्रह्मचारी, रामचन्द्र मुमुक्षु श्रादि के कथाकोश अपेक्षाकृत नवीन है ।
श्रीचन्द्र का एक कथाकोप श्रपश्रण भाषा में भी है । ऐसे ही जिनेश्वर, देवभद्र, राजशेखर, हेमहस आदि के कथा-ग्रन्थ है । यह साहित्य इतना विशाल है कि इस क्षुद्रकाय परिचय में सवका नाम देना भी मुश्किल है । नाना दृष्टियों से, विशेषकर जन साधारण के जीवन के सम्बन्ध में, जानने के लिए इन ग्रन्थो का बहुत महत्त्व है ।
जैन श्राचार्यों ने नाटक भी लिसे है जिनमें से अधिकाश श्रसाम्प्रदायिक है | हेचन्द्राचार्य के शिष्य रामचन्द्र सूरि के कई नाटक है | नलविलास, सत्यहरिश्चन्द्र, कौमुदीमित्रानन्द, राघवाभ्युदय, निर्भय भीम - व्यायोग श्रादि नाटक प्रसिद्ध है । कहते हैं, इन्होने १०० प्रकरण-ग्रन्थ लिखे थे । विजयपाल के द्रौपदीस्वयवर, हस्तिमल्ल के विक्रान्त कौरव और सुभद्राहरण में भी महाभारतीय कथाओ को नाटक का रूप दिया गया है । हस्तिमल्ल ने रामायण की कथा का आश्रय लेकर मैथिली कल्याण श्रौर अजनापवनजय नामक दो और नाटक लिखे है । यशश्चन्द्र का मुद्रित कुमुदचन्द्र एक साम्प्रदायिक नाटक है, जिसमें कुमुदचन्द्र नामक दिगम्वर पडित का श्वेताम्बर पडित से पराजित होगा वर्णन किया गया है (११२४ ई०) । वादिचन्द्रसूरि का ज्ञानसूर्योदय श्रीकृष्ण मिश्र के सुप्रसिद्ध 'प्रबोध - चन्द्रोदय' नाटक के ढग का एक तरह से उसके उत्तर रूप में लिखा हुआ नाटक है । जयसिंह का हम्मीर-मद-मर्दन ऐतिहासिक नाटक है । सन् १२०३ ई० के आसपास यश पाल ने मोहराज पराजय नामक रूपक लिखा था । मेघप्रभाचार्य का धर्माभ्युदय काफी मशहूर है ।
काव्य नाटको के सिवा जैन कवियो ने हिन्दू और बौद्ध आचार्यों की भांति एक बहुत बड़े स्तोत्र साहित्य की भी रचना की है । नीति-ग्रन्थो की भी जैन साहित्य में कमी नही है । राष्ट्रकूट अमोघवर्ष की प्रश्नोत्तर रत्नमाला को ब्राह्मण, वौद्ध और जैन सभी अपनी सम्पत्ति मानते है । इसके सिवा प्राकृत और संस्कृत में जैन पंडितो के लिखे हुए विविध नीतिग्रन्थ वहुत अधिक है । दिगम्बर आचार्य अमितगति के सुभाषितरत्नसन्दोह, योगसार और धर्मपरीक्षा (१०९३ ई०) महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इन ग्रन्थो में सभी जैन- प्रिय विषय है वैराग्य, स्त्री- निन्दा, ब्राह्मण निन्दा, त्याग