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प्रेमी जी : जीवन-परिचय
सवाई सिघई धन्यकुमार जैन
श्री नाथूरामजी प्रेमी के पूर्वज मालवा- प्रदेश मे नर्वदा - कछार की ओर के थे । वहाँ से चलकर वे दो श्रेणियो मे बँट गये । कुछ तो बुन्देलखण्ड की ओर चले प्राये और कुछ गढा - प्रान्त ( त्रिपुरी ) की ओर चले गये । श्रतएव स्वय प्रेमीजी के वशीय 'गढावाल' कहलाते थे । वे गढा - प्रान्त के निवासी थे और वहाँ से चलकर चेदि राज्य के सागर जिलान्तर्गत‘देवरी” नामक कस्वे में रहने लगे। वही गहन सुदी ६ मवत् ११३८ को प्रेमीजी का जन्म हुआ 1)
(प्रेमीजी के पिता स्व० टुँडेलालजी तीन भाई थे श्रीर उनके दो बहने थी। पहली माँ से एक भाई और दूसरी से दो । दादी का व्यवहार इतना सरल और स्नेहशील था कि पारस्परिक भेद-भाव का कभी किसी को ग्राभास तक नही हुआ । वाद में तीनो चाचियो में अनवन हो जाने के कारण मव अलग हो गये ।
उन दिनो का उद्योग-धन्वा खेती-बारी और साहूकारी था, लेकिन पिताजी इतने सरल और सीधे थे कि साहूकारी मे जो कुछ लगाया, उमे वे कभी भी वसूल न कर सके । 'लहना-पावना सव डूब गया। खेती की सुरक्षा श्रौर प्रबन्ध के तरीको से अनभिज्ञ होने के कारण खेती भी चौपट हो गई। धीरे-धीरे गृहस्थी की हालत इतनी बिगड गई कि खाने-पीने तक का ठिकाना न रहा ) वजी भौंरी कर शाम को जब पिताजी दो-एक चीथिया' अनाज लेकर लौटने तो भोजन की समस्या हल होती । एक लम्बे अरसे तक यही सिलसिला चलता रहा । ( ऐसी सकटापन्न स्थिति मे प्रेमीजी ने देवरी की पाठशाला मे विद्यारम्भ किया।) विद्याभ्यास और जीविका-
प्रेमीजी की वृद्धि वडी कुशाग्र थी । (पढने लिखने मे इतने तेज़ थे कि अपनी कक्षा मे सदा प्रथम या द्वितीय रहते । गणित और हिन्दी में उनकी विशेष रुचि थी । होशियार बालको पर मास्टर स्वभावत कृपालु रहते है ! त प्रेमीजी को भी अपने अध्यापको का कृपा-पात्र बनते देर न लगी ।
छठी की परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर प्रेमीजी को पहली कक्षा पढाने के लिए डेढ रुपये मासिक की मानीटरी मिल गई । इस काम को करते हुए स्कूल के हैडमास्टर श्री नन्हूरामसिंह ने, जो बाद में नायब, फिर तहसीलदार और अन्त में ऐक्स्ट्रा असिस्टेंट कमिश्नर होकर खनियावाना स्टेट के दीवान हो गये, प्रेमीजी को अपने घर पढाकर टीचर्स ट्रेनिंग की परीक्षा दो वर्ष में दिला दी। उसी समय स्कूल में एक नायव का स्थान ख ली हुआ । उन दिनो नायव मुर्दार को छ-सात रुपया मासिक वेतन मिलता था। प्रेमीजी ने जी-तोड प्रयत्न किया । हैडमास्टर ने भी सिफारिश की, लेकिन उन्हे मफलता न मिली और वह स्थान म्यूनिसपल मेम्वर के किसी स्नेहपात्र को मिल गया । इससे प्रेमीजी को वडी निरागा हुई । पर करते क्या ? परिवार के बोझ को हल्का करने की लालसा मन-की-मन में ही रह गई। फिर भी वे प्रयत्नशील रहे ।
इन्ही दिनो प्रेमीजी में कविता करने की धुन समाई । साहित्यिक सहयोगियो की एक मण्डली बनी श्रौर कविता-पाठ होने लगा । ( देवरी के प्रसिद्ध साहित्यकार स्व० सैयद अमीर अली 'मीर' उस मण्डली के प्रधान तथा मार्ग-दर्शक थे । प्रेमीजी को 'मीर' साहब बहुत चाहते थे । प्रेमीजी की रचनाएँ प० मनोहरलाल के सम्पादकत्व में कानपुर से प्रकाशित होने वाले 'रसिकमित्र', 'काव्यसुधाकर' तथा 'रसिकवाटिका' पत्रिका मे छपने लगी । 'प्रेमी' 'उपनाम तभी का है, परन्तु प्रेमीजी इस क्षेत्र मे बहुत श्रागे नही बढे । )
अनाज नापने का सवासेर का बर्तन |