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हिंदुस्तान में छापेखाने का आरंभ
१८१ १८४०) आया कि मै भी इसी तरह का एक छापखाना आरभ कर हिन्दू-धर्म से सम्बन्ध रखने वाली तथा अन्य पुस्तकें छापूं, परन्तु न तो छापने के साधन उनके पास थे और न वम्बई में उस समय उसके साधन मिलते ही थे। इसलिए उन्होने खुद अमेरिकन प्रेम देखकर उसके जैसा प्रेस वनाने का उद्योग आरम्भ किया। प्रारम्भ मे उन्होने एक लकडी का साँचा तैयार किया और इधर-उघर से छापने लायक पत्थर के छोटे टुकडे जमा करके उन पर अक्षर कैसे उठते है यह जांच की। मगर छापने को स्याही नहीं थी। इसलिए स्याही तैयार करने के काम मे लगे। अनेक तरह के -एक्सपेरिमेंट (प्रयोग) के बाद वे स्याही वनाने में सफल हुए। उसके बाद उन्होंने लोहे का एक प्रेस वनवाया। फिर छापने का पत्थर खरीद कर छोटी-छोटी पुस्तकें छापने का काम प्रारम्भ किया। शके १७६३ (सन् १८४१) में उन्होने स्वत लिखकर मराठोपचाग छापकर प्रकाशित किया। उसकी कीमत आठ आने रक्खी। यह साफ छपा हुआ था । ज्योतिष को अनेक वाते उसमें तुरन्त मिल जाती थी। यह देखकर ब्राह्मण लोग, यद्यपि छपी पुस्तको के विरोधी थे, लेकिन इस पचाग को खरीदने लगे और उमीसे सवत्सर प्रतिपदा (चैत्र सुदी १) के दिन वर्ष-फल पढकर लोगो को सुनाने लगे।
"इन्होने अपने छापाखाने मे छपी हुई कुछ पुस्तके ले जा कर डॉ. विलमन, पादरी गरेट और पादरी आलन को वताई। पुस्तके देखकर उन लोगो ने गणपत कृष्णाजो को बुद्धि को प्रशसा की और उनका उत्साह वढाने के लिए उन्हें कुछ छापने का काम देने लगे। फिर तो घोरे-धीरे उनके छापेखाने की बहुत प्रसिद्धि हुई और उन्हें छपाई का वहुत काम मिलने लगा।
"शके १७६५ (सन् १८४३) में गणपत कृष्णाजी ने टाइप बनाने का उद्योग प्रारम्भ किया। सांचे तैयार करके अक्षर ढालो का कारखाना शुरू किया और सब तरह के टाइप तैयार करके टाइप का छापाखाना भो आरम्भ कर दिया और उसमे पुस्तकें छपने लगी।
___"इस तरह गणपत कृष्णाजो ने दोनो छापेखानो मे हजारो गुजराती और मराठो की पुस्तकें छापी। इस छापाखाने में मराठो छापने का जैसा सुन्दर काम होता है, वैसा अन्यत्र नहीं होता।"
महाराष्ट्र में गणपत कृष्णाजो ने जैसा काम किया, वैसा उत्तर हिन्दुस्तान, वगाल, गुजरात आदि प्रातो के मुद्रको को विस्तृत जानकारी प्रकाशित होने से पाठको को वडा लाभ होगा। वम्बई]