________________
६६८
प्रेमी-अभिनदन-प्रथ भावी होता है । विवाह-सस्कार की उत्पत्ति मनुष्य की सबसे बडी आवश्यकता की पूर्ति के लिये हुई है तथा वह सामाजिक जीवन के लिये सवसे अधिक महत्त्वपूर्ण व्यावहारिक सस्था है । विवाह सस्कार का मूल स्त्री और पुरुष का पारस्परिक प्रेम है, न कि उनका एक दूसरे के प्रति विराग । इसमें सम्मान और अनुग्रह वाछनीय है, न कि वल-प्रदर्शन । जिस वैवाहिक सवध में प्रेम या सम्मान नहीं है उसका ऊपरी दिखाऊ गठवधन समाज के लिये कोई गक्ति नही प्रदान कर सकता। वह तो केवल एक ऐसी स्थिति उपस्थित करता है, जिसमें पति का पत्नी के ऊपर वैसाही अधिकार रहता है, जैसाकि एक विदेशी शासक का किसी उपनिवेश के ऊपर रहता है। और जव समाज इस प्रकार पुरुषो के अविच्छिन्न अधिकारी द्वारा शासित होता रहता है तव पलियो के ऊपर पतियो का वैसे ही साम्पत्तिक अधिकार जारी रहता है, जैसे किसी जमीदार का अपनी जमीन के ऊपर । गाँधी जी ने इस समस्या पर निम्नलिखित विचार प्रकट किये है"कुटुम्ब में शान्ति का होना बहुत आवश्यक है, किन्तु वह इतने ही तक नहीं समाप्त हो जाती। वैवाहिक सवध होने पर नियमानुकुल आचरण उतनाही आवश्यक है, जितना किसी अन्य सस्था में । वैवाहिक जीवन का अभिप्राय एक-दूसरे की सुख-समृद्धि को बढाने के साथ-साथ मनुष्य-जाति की सेवा करना भी है। जव पति-पत्नी में से कोई एक आचरण के नियमो को तोडता है, तो दूसरे को अधिकार हो जाता है कि वह वैवाहिक वधन को तोड दे। यह विच्छेद नैतिक होता है, न कि दैहिक पत्नी या पति उक्त दशा में इसलिए अलग हो जाते है कि वे अपने उस कर्तव्य का पालन कर सकें, जिसके लिये वे विवाह-सबध मे जुड़े थे । हिंदू-शास्त्रो में पति और पत्नी को समान अधिकार वाले कहा गया है, परन्तु समय के फेर से अव हिंदू समाज में अनेक बुराइयो की सृष्टि हो गई है ।"
इन बुराइयो मे सबसे अधिक वर्वर पर्दे की प्रथा है, जिसके द्वारा स्त्रियो को पिंजडे मे वद-सा कर दिया जाता है और यह ढोग प्रदर्शित किया जाता है कि इससे समाज मे उनकी लज्जा की रक्षा होती है। यहां गांधी जी का एक कथन फिर उद्धृत करना उचित होगा-"लज्जा या सच्चरित्रता कोई ऐसी वस्तु नहीं जो एकदम से पैदा कर दी जाय । यह कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो किसी को पर्दे की दीवार के भीतर विठाकर उसमे उत्पन्न कर दी जाय । इसकी उत्पत्ति आत्मा के भीतर से होती है और वही सच्चरित्रता वास्तविक है जो सभी प्रकार के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष लोम का सवरण कर सके। पुरुषो को इस योग्य बनना चाहिये कि वे अपनी स्त्रियो पर वैसे ही विश्वास कर सकें जिस प्रकार स्त्रियां पुरुषो पर विश्वास रखने के लिये वाध्य रक्खी जाती है।"
दूसरी वडी बुराई स्त्रियो में शिक्षा का प्रभाव है, जिसके कारण वे विलकुल असमर्थ रहती है और उन्हें पुरुषो की नितात अधीनता में रहना पड़ता है। यह वात वहुत जरूरी है कि जहां आवश्यक प्रारभिक शिक्षा का प्रवध है वहां लडको के साथ लडकियो की भी शिक्षा की व्यवस्था हो। शिक्षा के होने से स्त्रियां अपने में आत्मनिर्भरता तथा स्वतत्रता का अनुभव करेंगी और वे इस योग्य हो सकेंगी कि बड़े कार्यों और व्यवसार्यों के लिये भी वे अपने को दक्ष कर सकें। आज उचित शिक्षा के अभाव से अपनी शारीरिक और मानसिक दुर्बलता के कारण स्त्रियो का एक बहुत बडा समुदाय उस विशाल कार्य-क्षेत्र में भाग लेने से वचित है, जो उनके लिये खुला हुआ है।
मातृत्व का भार, जो नारी का सबसे महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है, दुर्भाग्यवश उसकी दासता का हेतु वना दिया गया है। न तो समाज ने और न राज्य ने इस बात पर समुचित विचार किया है कि माता के प्रति उनका क्या उत्तरदायित्व है। आज लाखो मातामो को बिना उनकी किसी रक्षा का प्रवध किये हुए, इस वडे कष्ट को वहन करना पडता है, जिसमें उनका तथा उनके गर्भजात शिशु का जीवन खतरे से खाली नहीं रहता। सहस्रो नारियां थोडी सी जीविका के लिये अपने बच्चो को विना किसी रक्षा का प्रवध हए राम भरोसे घर पर छोड कर सारे दिन वाहर काम करती है। जिन देशो में मातृत्व का महत्त्व समझा जाता है वहां प्रत्येक स्त्री के लिये विना उसकी आर्थिक स्थिति का विचार किये, गर्भ के समय तथा वच्चा उत्पन्न होने के बाद सभी हालतो में, अच्छे-से-अच्छे डाक्टरी इलाज का प्रवध खास अस्पतालो में किया जाता है। बच्चों के लिये शिक्षित दाइयो तथा शिशु-शालाओ आदि की व्यवस्था की जाती है।
महिला-समाज की उन्नति का तात्पर्य यह नहीं है कि स्त्री और पुरुष के लिये एक समान ढाचा गढ़ दिया जाय