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प्रेमी-अभिनंदन-प्रय
करने से रोका। देवी की बात मानकर उन्होंने स्तूप पर चौकोर पत्थरो का श्रावरण लगवा दिया। आज दिन तक देव उसमे सुरक्षित है। हजारों मूर्तियो, देवकुलो, विहारो और गन्धकुटियो से सुसज्जित यह जिन भवन चिल्लणिका, अम्वार क्षेत्रपाली की सरक्षता में आज दिन भी विद्यमान है ।
श्रुति की व्यवहारभाष्य वाली अनुश्रुति से तुलना करने पर यह बात साफ हो जाती है कि व्यवहार माय वाली अनुश्रुति विविधतीर्थंकल्प की अनुश्रुति से कही अधिक पुरानी है । कुछ खास वातो में दोनो में भेद भी है। व्यवहारभाष्य में स्तूप का निर्माण साधुओ को उनकी ग्रहमन्यता का दंड देने के लिए हुआ था, लेकिन विविधतीर्थकल्प में उनकी रचना साघुग्रो को प्रसन्न करने के लिए दिखाई गई हैं । वाद की अनुश्रुति में स्तूप के बारे में भिन्न-भिन्न मतावलम्बियों की आपस की लडाई का विस्तृत वर्णन करके जैनो की अलोकिक शक्ति की मदद से जीत बतलाई गई हैं । व्यवहारसूत्र में इसका कोई उल्लेख नही है । उसमें तो केवल यही बतलाया गया है कि वौद्धो द्वारा जैन स्तूप अधिकृत होने पर मदद के लिए दैवीशक्ति का आह्वान किया गया और राजा ने जैनो द्वारा प्रस्तावित एक सीधे-सादे उपाय को मानकर न्याय किया और स्तूप जैनो को लौटा दिया । विविधतीर्थकल्प मे मथुरा के राजा को लालची कहकर उसे स्तूप लूटने की इच्छा रखने वाला बतलाया है और अलौकिक शक्ति द्वारा उसके शिरोच्छेद की भी कथा कही है। प्राचीन अनुश्रुति में इन नव वातो का पता तक नहीं है । विविघतीर्थंकल्प में जो वर्णन जैन स्तूप का है, वह व्यवहार मे नही आता । आगे चलकर हम उसकी उपादेयता दिखलायेंगे ।
दिगम्बर प्राचार्यों ने भी मथुरा के सम्वन्ध में कुछ अनुश्रुतियो का उल्लेख किया है । हरिषेणाचार्य रचित वृहत्कथाकोश में, जिसका रचनाकाल १३२ ई० है ( देखिए, डा० उपाध्ये, वृहत्कथाकोग, पृ० १२१, बम्बई, १९४३), वरकुमार की कथा में मथुरा के पचस्तूपों का वर्णन आया है। उनके निर्माण की कथा इस भांति दी है एक समय मथुरा का राजा पूतिमुख एक वौद्ध प्राचार्य द्वारा पालित एक रूपवती कन्या को देखकर मोहित हो गया। राजा ने बहुत सी दान-दक्षिणा वौद्ध साबुन को देकर उस सुन्दरी से विवाह करके उसे पटरानी बना दिया । फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को उर्विल्ला रानी ने जैन रथ-यात्रा निकालनी चाही। इस पर ईर्ष्या से श्रभिभूत होकर वौद्ध पटरानी ने राजा को इस बात पर मना लिया कि बोद्धरथ के बाद जैनरथ निकले। इससे दुखी होकर रानी उविल्ला जैन मुनि सोमदत्त के पास पहुँची और जिन के अपमान की बात कह सुनाई। सोमदत्त वरकुमार के पास पहुँचे और वैरकुमार उन्हें सान्त्वना देकर सोधे श्रमरावती पहुँचे । वहाँ दिवाकरादि देवो और विद्याधरो ने उनका स्वागत किया। यह पूछने पर कि सव कुशल तो है वैरकुमार ने बतलाया कि मथुरा में जिन-पूजा में किस तरह विघ्न हो गया है। यह सुनकर विद्याघर वडे ही कुपित होकर चल पडे । मथुरा में आकर सोमदत्त श्रादि मुनियों को उन्होने प्रणाम किया और मथुरान्त प्रदेश और पुर के आकाश में खेचरेश्वर भीषण रूप धारण कर छा गये तथा उन रथो को जिन पर बुद्ध की पूजा हो रही थी नष्ट कर डाला तथा उर्विल्ला का सोने का जडाऊ जैनरथ उन्होने वडे गाजे-बाजे के साथ पुर मे घुमाया तथा चाँदी के जडाऊदार पाँच स्तूप जिनवेश्म के सामने वनाये ('महारजतनिर्माणान् खचितान् मणिनायकै पचस्तूपान् विधायाग्रे समुच्च- जिनवेश्मनाम्', वही, १२१३२) । वाद धूप-दीप, पुष्प से नाच-गाकर जिन की पूजा करके विद्याधर स्वर्ग वापस चले गये (वृहत्कथाकोश, १२, १०१-१४३) । जाते हुए वे जिन-पूजा न करने वालो को नष्ट कर देने की धमकी भी देते गये ।
सोमदेव सूरी के यशस्तिलक चम्पू मे भी, जिसका समय शक स० ८८१ है ( ई० स० ६५९), यह अनुश्रुति प्राय बहुत मामूली हेर-फेर के साथ ज्यों-की-त्यो मिलती है (यशस्तिलक भाग २, पृ० ३१३-३१५, काव्यमाला, बम्बई, १९०३) । इसमें भास्करदेव का वस्त्रकुमार और देव सेना के साथ मथुरा आना लिखा है और जिनरथ को घुमाकर जिन प्रतिविम्वाकित एक स्तूप के स्थापना का भी जिक्र है । सोमदेव के समय तक उस तीर्थं का नाम देवनिर्मित था ('अत एवाद्यापि तत्तीर्थ देवनिर्मिताख्यया प्रयते', वही, पृ० ३१५) ।
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इन दिगम्बराचार्यो की मथुरा के जैन स्तूप विषयक अनुश्रुतियो की जाँच पडताल करने से पता चलता है कि
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