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प्रेमी-अभिनदन-प्रथ
शब्द से है। किन्तु यदि विसे', 'विसें' को प्रारम्भिक रूप और 'विगे' 'वि' विर्ष' को 'विमे' फा "पडिता" रूप तया 'विखें "विखै' को इस “पडिता" रूप से परिवर्तित माना जाय, तो इस शब्द को भी प्रा० 'विच्च' मे सम्बद्ध किया जा सकता है। क्योकि 'च', 'छ' और 'स', 'श' के विनिमय के अनेक उदाहरण पाली, प्राकृत तथा आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ में मिलते है। पाली प्राकृत मे स० च्च' तथा'छ' के स्थान पर 'स' अथवा 'म्म' देखने में प्राता है, जैसे स० पृच्छति'>प्रा० 'पुछई', 'पुसइ' तथा 'पुसइ',स० "चिकिला-'>प्रा० 'चिकिछा-'तपा'चिक्सिा -', न० 'उच्च-' >प्रा० 'उत्स' इत्यादि । आधुनिक भाषाओ मे वगाली, मराठी, गुजराती तथा राजस्थानी के अनेक गन्दो गे 'च' के स्थान पर 'स''त्त अथवा 'श' का उच्चारण प्रचलित है । उदाहरण के लिए न० 'चुक > व 'गुरु' (निगा), स० 'चोर'>म० 'लोर',सः 'उच्च'>गु० 'उनो', हि० 'अक्की'> राज 'सी' यादि। मिहली भाषा के तो प्राय सभी शब्दोमे 'च' के स्थान पर 'स'हो गया है-म० चत्वार'>मि० 'सतर',म० 'पञ्च'>मि० 'पर' इत्यादि। इसी प्रकार के विनिमय ने 'विचे' (="वीच में") को 'विसे' बना दिया हो, तो कोई पाश्चर्य नहीं। 'विमें' का विसे' 'विस', 'विमै' आदि वन जाना साधारण वात है। हैदरावाद]
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'प्रारम्भिक रूप कौन सा है, इसका निर्णय तभी हो सकता है, जब इस शब्द के प्रयोग के समस्त उदाहरण प्रामाणिक हस्तलिखित प्रतियों से सगहीत किये जायें और उनकी विवेचना की जाय । इस सामग्री की अलभ्यता होते हुए प्रारम्भिक रूप का निर्णय करना मेरे वश के बाहर की बात है।
विस्तृत विवेचना के लिए देखिये, सु० चाटुD "बंगाली " पृ० ४६६-६७, पिशेल्, 'ग्रामा० प्रा० प्रा०" ३२७ आदि।
'सु० चाटुा , "बंगालो- ", पृ० ४६६ । "सु० चाटुा , "बंगाली ", पृ० ५५१ । "दे० प्रियर्सन का लेख, "जर्नल ऑक् द रॉयल एशियाटिक सोसाइटी", १९१३, पृ० ३६१-।
'दे० गाइगर, "लितरातूर उद् प्राख्ने देर् सिंहालेजन" ष्ट्रासवर्ग (Literatur und Sprache der Singhalesen, Strassburg), १९००, 55 १४ (६), २३ (१) ।