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'जैन-सिद्धान्त-भवन के कुछ हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थ
४६९ १ मिथ्यात्व खडन नाटक-इस ग्रन्थ में तेरह पन्थ की उत्पत्ति का सकारण विवेचन किया गया है। इस पन्थ की उत्पत्ति स० १६८३ मे बतलाई है। अनेक ग्रन्थो के प्रमाण देकर बीसपन्थी दि० आम्नाय की पुष्टि की गई है । ग्रन्थ की भाषा शिथिल है । एक स्थान पर लिखा है
प्रथम चलो मत प्रागरे, श्रावक मिले कितेक । सोलस सै तिरासिये, गही कितेक मिलि टेक ॥ काहू पडित पै सुने, कितै आध्यात्मिक ग्रन्थ ।
श्रावक क्रिया छाड के, चलन लगे मुनि पथ ॥"
इन पक्तियो से स्पष्ट है कि सर्वप्रथम आगरे के प्रासपास तेरह पन्थ की उत्पत्ति हुई थी। ग्रन्थ में आगे बतलाया है कि जयपुर और आगरे के कुछ पडितो ने मिल कर इस पन्थ को निकाला। बीसपन्थ की पुष्टि करते हुए ग्रन्थकार ने तेरहपन्थियो की क्रियाओ का खडन किया है तथा बीसपन्थी दिगम्बर आम्नाय को प्राचीन बतलाया है। ग्रन्थ मे २५१ पृष्ठ है। लिपि अस्पष्ट है, प्रति भी अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। यह प्रति स० १८७१ में लिखाई गई है।
२ रूपचन्दशतक--इसमें कविवर रूपचन्द ने सौ दोहो में नीति और वैराग्य का वर्णन किया है। प्रत्य की भाषा प्राञ्जल है । धार्मिक दोहो में भी साहित्यिक छटा का परिचय मिलता है। कविवर ने प्रारम्भ मे ससारी जीवो को सम्बोधन कर कहा है
अपनो पद न विचार के, अहो जगत के राय । भव-वन छायक हो रहे, शिव पुर सुघि विसराय । भववन भरमत अहो तुम्हें, बीतो काल अनादि । अब किन घरहिं सवारई, कत दुख देखत वादि । परम अतीन्द्रिय सुख सुनो, तुमहि गयो सुलझाय । किञ्चित इन्द्रिय सुख लगे, विषयन रहे लुभाय । विषयन सेवते भये, तृष्णा तें न बुझाय ।
ज्यो जल खारा पीवतें, बाढ़े तुषाधिकाय ॥ इस प्रकार ग्रन्थ में हिन्दी भाषा-भाषियो के लिए अध्यात्म-रस का सागर भरा हुआ है।
३ चन्द्रशतक-यह सौ छन्दो में कवि चन्द्र का लिखा ग्रन्थ है । 'चन्द्र' यह कवि का उपनाम मालूम होता है । वास्तविक नाम का पता ग्रन्थ से नहीं लगता, पर जिस प्रति में चन्द्रशतक है, उसी प्रति में कुछ आगे कवि त्रिलोकचन्द्र के फुटकर कवित्त लिखे है । सम्भव है, कवि का नाम त्रिलोकचन्द हो । साहित्यिक दृष्टि से चन्द्रशतक के कवित्त और सवैये महत्त्वपूर्ण है। इसमें कवि ने अध्यात्मज्ञान का वर्णन किया है। द्रव्य, गुण, पर्याय आदि तात्त्विक विषयो का वर्णन भी बहुत ही सुन्दर हुआ है। भाषा सानुप्रास' और मधुर है। प्रत्येक सवैया पाठक को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। साधारण लोग भी ऐसे ग्रन्थो से गुणगुणी, द्रव्य-पर्याय, आदि सूक्ष्म विषयो को सरलता से समझ सकते है। नमूने के लिए एक-दो पद्य उद्धृत किये जाते है
गुन सदा गुनी माहि, गुन गुनी भिन्न नाहि, भिन्न तो विभावता, स्वभाव सदा देखिये। सोई है स्वरूप प्राप, आप सो न है मिलाप, मोह के प्रभाव थे, स्वभाव शुद्ध पेखिये ॥ छहों द्रव्य सासते, अनादि के ही भिन्न-भिन्न, आपने स्वभाव सदा, ऐसी विधि लेखिये । पांच जड़ रूप, भूप चेतन सरूप एक, जानपनो सारा चन्द, माथे यों विसेखिये ॥