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प्रेमी-अभिनदन-प्रय देह दहे लू सहे दुख सकट, मूढ महागति जाय अघोरे। प्रापही आप को ज्ञान बुझाय, लगी जो अनादि वि विपदौरे । सो सुख दूर करें दु ख को, निज सादि महारस अमृत कौरे।
तेज कह मुख से यह, निज देखनहार तू देखन वोरे ॥ कवि ने सज्जन और मूर्ख का भी सुन्दर वर्णन किया है। सज्जन के स्वभाव का वर्णन करते हुए लिखा है
पर प्रोगुन परिहरे, धरे गुनवत् गुण सोई । चित कोमल नित रहें, झूठ जाके नहि कोई ॥ सत्य वचन मुख कहें, आप गुन पाप न बोलें। सुगुरु-वचन परतीति, चित्त थे कब न डोले ।। वोलें सुवन परिमिष्ट सुनि इप्टवैन सुनि सुखकरें। कहें चन्द बसत जगफद में, ये स्वभाव सज्जन घरे॥ सज्जन गुन घर प्रीति रोति विपरीत निवारें। सकल जीव हितकार सार निज भाव सवारें। दया, शील, सतोष, पोख, सुख सब विधि जानें। सहज सुधा रस बर्वे, तजें माया अभिमाने । जाने सुभेद परभेद सब निज अभेद न्यारी लखें।
कहें चन्द जहँ आनन्दप्रति जो शिव-सुख पावें प्रखे ॥ पाठक देखेंगे कि उपर्युक्त सज्जन-स्वभाव का वर्णन कवि ने कितना स्वाभाविक किया है। भापा मरत, सरल और मधुर है। कोमल कान्तपदावली सर्वत्र विद्यमान है। हिन्दी के प्रेमी पाठको को इस गतक में प्राचीन हिन्दी विभक्तियो के अनेक रूप दृष्टिगोचर होगे। भाषा-विकाम की दृष्टि से व्रजभाषा के सुन्दर प्रयोग हुए है। गव्दालकार प्राय सर्वत है। कही-कही अर्यालकारो का सुन्दर समन्वय भी हुआ है।
४ नाममालाभाषा-इसे कविवर देवीदास ने कवि धनञ्जय की नाममाला के आधार पर लिखा है। पुस्तक में मूल विषय के २३२ पद्य है और दो पद्य कवि के विषय मे है। कवि ने दोहरा, पद्धरि, चौपई छन्दो का प्रयोग अधिक किया है। पुस्तक सस्कृत अध्ययन करने वालों के साथ-साथ भापा अध्ययन करने वालो के लिए भी उपयोगी सिद्ध होगी। भाषा भी प्रौढ और प्राञ्जल मालूम होती है। दो नमूने इस प्रकार है
"विपन गहन कान्तार वन, फानन कक्ष अरण्य । अटवी दुर्ग सुनाम यह, भीलन को सुशरण्य ॥ पानन्द, हर्ष, प्रमोद मुत, उत्सव प्रमद सन्तोष ।
करणा अनुकम्पा दया, प्रहन्तोक्ति अनुकोष ॥ ___ उपर्युक्त पद्यो से स्पष्ट है कि कवि ने सस्कृत-तत्सम शब्दो का व्यवहार अधिक किया है, पर व्रजभाषा के 'मुत' जैसे शब्दों का प्रयोग भी किया है। अन्य में उसका रचनाकाल निम्न प्रकार दिया है
सम्बत अष्टादश लिखो, जा ऊपर उनतीस ।
वासों दे भादों सुदि बीते चतुर्दशीस ॥ पन्य की प्रति सुन्दर है । लिपि भी सुन्दर भौर सुवाच्य है।