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प्रेमी-अभिनंदन-प्रय कौटिल्य का यह अर्थशास्त्र ईसा से ३२१ से ३०० वर्ष पूर्व के बीच में लिखा गया होगा। पर यह निश्चय है कि यह अर्थशाल अपनी परम्परा का पहला ग्रन्थ नहीं है । इस अर्थशास्त्र में पूर्ववर्ती अनेक आचार्यों का उल्लेख है जैसे विगालाक्ष (१८६३), पराशर (श६७), पिशुन ( १२), बाहुदन्ती पुत्र (शमा२७), कोणपदन्त (१।१६), वातव्याधि (शा२३), कात्यायन (५॥५॥५३), कणिक भारद्वाज (२०५४), चारायण (५०५०५५), धोटमुख (२०५६), किंजल्क (५०५५७), पिशुनपुत्र (२०५९) । इनके अतिरिक्त मानवो, वार्हत्सत्यो, मोशनसो और माम्भीयो का भी उल्लेख है । स्पष्टत अर्थशास्त्र की परम्परा हमारे देश में बहुत पुरानी है। अर्थवेद को वेद का एक उपवेद माना जाता रहा है । खेद का विषय है कि जिन आचार्यों का उल्लेख यहाँ किया गया है उनके गन्य हमें इस समय उपलब्ध नहीं है।
__ अर्यशास्त्र की परिभाषा कौटिल्य ने स्वय अपने गन्थ के अन्तिम अधिकरण में कर दी है-मनुष्याणां वृत्तिर्य। मनुष्यवती भूमिरित्यर्थ । तत्या' पृथिव्या लाभपालनोपाय शास्त्रमर्थशास्त्रमिति । इस प्रकार मनुष्यो को वृत्ति को और मनुष्योसे युक्त भूमि को भी अर्थ कहते हैं। ऐसी भूमि की प्राप्ति और उसके पालन के उपायो का उल्लेल जित शाल मे हो उसे अर्थशास्त्र कहेंगे। इस अर्थशास्त्र का उद्देश्य भी कौटिल्य के शब्दो में इस प्रकार है
धर्ममयं च कामं च प्रवर्तयति पाति च ।
अधर्मानर्थ विद्वषानिदं शास्त्र निहन्ति च ॥ अर्थात यह शास्त्र धर्म, अर्थ एव काम को प्रोत्साहित करता है और इन तीनो की रक्षा करता है और अर्थविद्वेषी अवर्मों का नाश भी करता है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में १५ अधिकरण, १५० अध्याय, एक सौ अस्सी प्रकरण और लगभग ६ सहन श्लोक हैं। इतने बडे अन्य में अर्थ सम्बन्धी लगभग सभी विषयो का समावेश हो गया है।
मेरी धारणा यह है कि मनुष्यवती पृथिवी के लाभ और पालन का सम्बन्ध रसायन विद्या से भी घनिष्ट है और मुझे कौटिल्य के अर्थशास्त्र का पारायण करते समय वडा सन्तोष इस बात से हुआ कि इस अन्य में रासायनिक विषयो की अवहेलना तो दूर, उनका अच्छा समावेश किया गया है। भारतीय रसायन का एक सुन्दर इतिहास आचार्य सर प्रफुल्लचन्द्र राय ने सन् १९०२ मे लिखा था जिसमे तन्त्र और आयुर्वेद के ग्रन्थो के आधार पर विषयो का प्रतिपादन किया गया था। सरप्रफुल्ल को उस समय कौटिल्य के इस अमूल्य अन्य का पता न था। यह ठीक है कि रसायन विद्या का सम्बन्ध भायुर्वेद से भी विशेष है, पर इतना ही नहीं, इसका विशेष सम्वन्ध तो राष्ट्र की सम्पत्ति की प्राप्ति, उसकी वृद्धि और रासायनिक द्रव्यो के सर्वतोन्मुखी उपयोग से है। भारतीय रसायन के इतिहास में कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित सानत्री बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है।
वैशेषिक दर्शन में प्रतिपादित परमाणुवाद और सात्य का विकासवाद भारतीय रसायन के शास्त्रीय दृष्टिकोण का अभिभावक बना। पचभूतो का शास्त्रीय विवेचन विज्ञानभिक्षु के योगवात्तिक तक में किया गया। सुश्रुत ने अपने शारीरस्तान में प्रत्येक महाभूत में अन्य महाभूतो के समावेश का भी उल्लेख किया है-अन्योन्यानुप्रविष्टानि सर्वान्येतानि निद्दिशेत् । चरक और सुधुत दोनो ने अपने सूत्र-स्थानो में पार्थिव तत्त्व के अन्तर्गत अनेक धातुओ और रासायनिक पदार्थों का उल्लेख किया है
पायिवा. सुवर्ण रजत मणिमुक्तामन शिलामृत्कपालाक्य । सुवर्णस्य इह पार्थिवत्वमेवाङ्गीक्रियते गुरुत्व काठिन्य त्यादिहेतुभिः । सूत्रे प्रादि ग्रहणात् लोहमलसिकता सुधा हरिताल लवण गैरिक रसाजन प्रभृतीनाम् ॥
चरक और सुश्रुत इतने प्रसिद्ध ग्रन्य है कि उनके उल्लेख की यहाँ कोई आवश्यकता नही, चरक और सुश्रुत की भी अपनी परम्परा पुरानी है । वर्तमान समय में प्राप्त चरक और सुश्रुत लगभग १८०० से १४०० वर्ष पुराने (ईसा की पहली शताब्दी से ५वी शताब्दी तक के) है। कहा जाता है कि आत्रेय पुनर्वसु के शिष्य अग्निवेश ने जो