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प्रेमी-अभिनदन-प्रथ राजपूताना आदि प्रदेश-चुने थे। इसलिए उनकी व्रजभाषा मे 'अम्है', 'पूछिबा', कहिवा' 'करिवा', आदि राजस्थानी शब्द भी मिलते है। 'जा मनुष्य के मन छनमात्र ब्रह्म के विचार बैठो', जैसे वाक्याशो पर पूरबीपन की छाप भी स्पष्ट है । यद्यपि उक्त अवतरणो को देखकर शुक्ल जी को यह शका होती है कि यह किसी सस्कृत लेख का 'कथभूती' अनुवाद न हो, तथापि उन्होने निश्चयरूप से इसे स० १४०० के गद्य का नमूना माना है।'
हिन्दी में प्रचलित तद्भव रूप भी इन ग्रथो में बहुत अधिक मिलते है । कही-कही तो तद्भव रूपो की अधिकता देखकर अनुमान होने लगता है कि लेखक का ध्यान शब्दो के सस्कृत रूप की ओर अधिक नही है। जज्ञ, अस्नान, छन, सर्व, पूजि चुकौ, पितरन आदि शब्द इसी रूप में इन ग्रन्थो मे मिलते है, सस्कृत के शुद्ध रूप में नहीं।' वस्तुत इन शब्द-रूपो के अपनाये जाने का एक कारण है। प्राचीन हिन्दी कविता में कुछ तो तुक की आवश्यकता से और कुछ भाषा की सरसता तथा व्यवहार की स्वाभाविकता के कारण सस्कृत शब्दो के हिन्दी स्पो का व्यवहार आरम्भ से ही किया गया है। गद्य-रचनाओ मे भी लेखको ने यही प्रवृत्ति अपनाना उचित समझा। वावा गोरखनाथ ही नही, उनके पश्चात् विट्ठलनाथ, गोकुलनाथ, नाभादास, बनारसीदास आदि सभी प्राचीन गद्यलेखको मे यह प्रवृत्ति समान है।
__गोरखनाथ की भाषा के उदाहरण-रूप में जो उक्त अवतरण हमारे साहित्य-इतिहासो मे उद्धृत रहते है, व्रजभाषा-विकास की दृष्टि से वे प्राय सभी यह समस्या उपस्थित करते है कि यदि गोरखनाथ का समय ग्यारहवी शताब्दी माना जाय तो यह गद्य उनका लिखा हुआ नही हो सकता और यदि यह गद्य उन्ही का है तो चौदहवी शताब्दी से तीन सौ वर्ष पहले ऐसी साफ व्रजभाषा प्रचलित नही मानी जा सकती। मिश्रवन्धुओ ने बाबा गोरखनाथ को ही हिन्दी गद्य का प्रथम लेखक माना है, परन्तु उन्होने इस समस्या पर विचार नही किया। अन्य इतिहासकार भी प्रमाण के अभाव में अनुमान से काम चलाते है। श्री राहुल साकृत्यायन जी उनका समय ईसवी सन् की ग्यारहवी शताब्दी ही मानते है, परन्तु उनके गद्य के सम्बन्ध में स्पष्ट मत कदाचित उन्होने भी नही दिया है।"
मत-विशेष के प्रचारकार्य से सम्बन्ध रखने के कारण गोरखनाथ का गद्य उपदेशपूर्ण हो गया है। इसलिए उससे हम केवल साधारण क्रिया-रूपो और हिन्दी गद्य पर सस्कृत के प्रभाव-मात्र को जान सकते है । सिद्धान्तो के वर्णन की चेष्टा होने के कारण कही-कही उसमें साहित्यिक भाषा की-सी झलक मिलती है।
कुमुटिपाव के नाम पर मिला दूसरा ग्रन्थ भी हठयोग से सम्बन्ध रखता है। कुमुटिपाव सम्भवत चौरासी सिद्धि वाले कुमुरिपा है। इस ग्रन्थ में षट्चक्र और पच मुद्राओ का वर्णन है। इसका लिपिकाल सन् १८४० है और रचनाकाल ज्ञात नही है। इसकी भाषा के रूप को देखकर कहना पड़ता है कि यह ग्रन्थ चौदहवी शताब्दी के लगभग ही लिखा गया होगा और इस दृष्टि से इसकी भाषा का यह रूप विचारणीय है। नमूना देखिए
अजया जयन्ती महामुनि इति ब्रह्मचक्र जाप प्रभाव वोलीये । ब्रह्मचक्र ऊपर गुह्यचक्र सीस मडल स्थाने बसै । इकईस ब्रह्माड बोलीये। ।परम सून्य स्थान ऊपर जे न विनसे न पावे न जाई योग योगेन्द्र हे समाई। सुनौ देवी पार्वती ईश्वर कथित महाज्ञान ।
इस अवतरण में एक ओर जयन्ती, स्थाने, कथित, ज्ञान आदि रूप है और दूसरी ओर बोलीये, बस, न विनसे,
'हिन्दी साहित्य का इतिहास (सशोधित और परिवर्तित सस्करण) स० १६९, पृ० ४७६ मिश्रबन्धुविनोद, प्रथम भाग-भूमिका पृष्ठ ५३
॥ ॥ ॥ पृष्ठ १५७ ॥ ॥ ॥ ॥ १६१
'काशी नागरी प्रचारिणी सभा का अडतालीसवां वार्षिक विवरण, स० १९६७, पृ० १०