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नईगढ़ी
अदृष्ट
ठाकुर गोपालशरण सिंह
क्या तुम छिप सकते हो मन में ?
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ललित लता के मृदु श्रञ्चल में, विकसित नव-प्रसून के दल में, प्रतिविम्वित हिमकण के जल में तुम्हें देखता हूँ में सन्तत
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पिक- कूजित कुसुमित कानन में । क्या तुम छिप सकते हो मन में ?
रत्नाकर,
लिये सङ्ग में परम मनोहर, तारावलि - रूपी है नभ में छिप गया कलाधर, किन्तु देखता हूँ में तुमको
चल-चपला मे ज्योतित धन में । क्या तुम छिप सकते हो मन में ?
जल की ललनाओ के घर में, गाते हुए मरस मृदु स्वर में, तुम हो छिपे तल सागर में, में देखा करता हूँ तुम को
चञ्चल लहरो के नर्त्तन में । क्या तुम छिप सकते हो मन में ?
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जब में व्याकुल हो जाता हूँ, कहीं नहीं तुम को पाता हूँ। मिलनातुर हो घबराता हूँ, तब तुम श्राकर भर देते हो
नव प्रकाश मेरे जीवन में । क्या तुम छिप सकते हो मन में ?
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